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अफगानिस्तान : तालिबान के नाम से इतनी दहशत क्यों, आखिर तालिबान कौन है, कब, कहां और कैसे पनपा

Mohsin
25 Aug 2021 4:36 PM GMT
अफगानिस्तान : तालिबान के नाम से इतनी दहशत क्यों, आखिर तालिबान कौन है, कब, कहां और कैसे पनपा
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तालिबान पश्तो ज़ुबान का शब्द है जिसका मतलब है छात्र. मुल्ला उमर ने 50 छात्रों के साथ संगठन शुरू किया

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। 15 अगस्त को जब भारत अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा था उस समय अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर ग़ुलामी की जंजीरों में बंध रहा था. जिस अफ़ग़ानी सेना को अमेरिका ने दशकों तक इतनी कड़ी ट्रेनिंग दी, उसने बिना लड़े ही तालिबानी लड़ाकों के सामने सरेंडर कर दिया. राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी अपने साथ हेलीकॉप्टर में कई लग्ज़री कार और बेशमुार नक़दी लेकर देश छोड़ गए. लेकिन अफ़ग़ान की अवाम मझधार में फंस गई है, जहां से निकलना बहुत ही मुश्किल नज़र आ रहा है.

तालिबान कौन है, कब, कहां और कैसे पनपा
गाड़ियों पर लदे तोप, कंधे से लटके स्टेनगन और हाथों में एके 47, तालिबान की एंट्री कुछ ऐसे ही किरदार के रूप में हुई थी. ये वही ताक़त है जिसने पहले तो अमेरिका को बीस साल तक छकाया और फिर वापस लौटने पर मजबूर कर दिया. तालिबान के ख़ौफ़ को समझने के लिए क़रीब तीस साल पीछे जाना होगा. नब्बे के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान से अपनी फ़ौज़ को वापस बुला रहा था तब उत्तरी पाकिस्तान में तालिबान खड़ा हो रहा था.
तालिबान पश्तो ज़ुबान का शब्द है जिसका मतलब है छात्र. मुल्ला उमर ने 50 छात्रों के साथ संगठन शुरू किया जो कि बहुत ही कम समय में कट्टरपंथ का बड़ा कारवां बन गया. तालिबान को बनाने के पीछे पाकिस्तान के साथ-साथ सउदी अरब की फ़ंडिंग को सबसे बड़ा ज़िम्मेदार माना जाता है. कुछ ही समय में अफ़ग़ानिस्तान के दक्षिणी हिस्से और ईरान से सटे सीमाई प्रांतों में तालिबान बहुत तेज़ी से एक बड़ी ताक़त के रूप में उभरा.
साल 1994 में सबसे पहले कंधार, 1995 में ईरान से लगे हेरात और फिर साल भर बाद 1996 में राजधानी काबुल को तालिबान ने अपने क़ब्ज़े में ले लिया. 1996 में मुजाहिद्दीन नेता बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से बेदख़ल करने के साथ ही अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान शासन की शुरुआत होती है. 1998 आते-आते पूरे अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान की हुक़ूमत हो चुकी थी.
तालिबान के नाम से इतनी दहशत क्यों
सोवियत आर्मी के जाने के बाद कबाइली लोगों को तालिबान में मसीहे की झलक दिखी. हालांकि कुछ ही समय बाद तालिबान के शरीयत क़ानून से लोग तंग आ गए. न्याय के नाम पर सरेआम सड़कों पर क़त्लेआम, पुरुषों के लिए लंबी दाढ़ी, महिलाओं के लिए बुर्क़ा पहनने जैसी पाबंदियों ने दहशत पैदा कर दिया. टेलीविज़न, सिनेमा, संगीत- ये सब अपराध बन गए। 10 साल से बड़ी लड़कियों का स्कूल जाना ग़ुनाह बन गया.
पहली बार कब नज़र में आया तालिबान
साल 2001 में बामियान में हज़ारों साल पुरानी बुद्ध की मूर्ति को उड़ाकर पहली बार तालिबान ने दुनिया को अपना आतंक दिखाया. सिर्फ़ ये मूर्ति ही नहीं टूटी,बल्कि तोप के इन गोलों से दुनिया हिल गई. लेकिन तब भी विश्व समुदाय मूकदर्शक बना बैठा रहा और बैठा ही रहता अगर 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की घटना न होती. इस हमले से अमेरिका बुरी तरह तिलमिला गया. हमला ओसमा बिन लादेन के आतंकी संगठन अलक़ायदा ने किया था लेकिन लादेन को पनाह देने के चलते अमेरिका के निशाने पर तालिबान भी आया.
अमेरिका ने लादेन और तालिबान से कैसे बदला लिया
तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के इस एलान के साथ ही 7 अक्टूबर 2001 को नाटो सेना के साथ अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान पर चढ़ाई कर दी. पहले काबुल, फिर कंधार से तालिबान और दो महीने में पूरे अफ़ग़ानिस्तान से तालिबान भाग गया. हालांकि लादेन और मुल्ला उमर अफ़ग़ानिस्तान से निकलने में कामयाब रहे. क़रीब डेढ़ साल बाद यानी मई 2003 में अमेरिका का सैन्य अभियान ख़त्म हो गया.
2009 में राष्ट्रपति बनने के बाद, बराक ओबामा ने तालिबान के ख़ात्मे के लिए लड़ाई और तेज़ कर दी. 2010 तक अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की तादाद एक लाख हो गई. 2 मई 2011 को लादेन के ख़ात्मे के साथ ही अमेरिका का मिशन पूरा हो गया. 2012 में बराक ओबामा ने 33 हज़ार अमेरिकी फ़ौजियों को वापस बुला लिया. अप्रैल 2013 में तालिबान प्रमुख मुल्ला उमर भी मारा गया.
कैसे कमज़ोर पड़ी अमेरिका की लड़ाई
डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने तो तालिबान के साथ शांतिपूर्ण बातचीत और समझौते की पहल शुरू हुई. 2021 में जब जो बाइडन राष्ट्रपति बने तब भी अमेरिका की राह वही रही. इस ऐलान के साथ ही अफ़ग़ानिस्तान की सांसें थम गईं. तालिबानी क्रूरता की वर्षों पुरानी तस्वीरें आंखों में तैरने लगीं.
अमेरिका ने अफ़ग़ान मिशन की क्या क़ीमत चुकाई
क़रीब दो दशक के इस पूरे मिशन में अमेरिका को 2 ट्रिलियन यानी क़रीब 61 लाख करोड़ का ख़र्च आया. अमेरिका ने एक लाख सैनिक अफ़ग़ानिस्तान भेजे और अमेरिकी फ़ौज के क़रीब 2400 जवानों की जान गई. वहीं, नाटो आर्मी के 700 जवानों की मौत हुई तो 64हज़ार अफ़ग़ानी सेना के जवान मारे गए और 1 लाख से ज़्यादा अफ़ग़ानी लोग भी मौत के शिकार हुए. अमेरिका के इस मिशन से एक शांति तो हुई लेकिन वो अस्थायी थी.
20 साल बाद में तालिबान की वापसी
ज़रूरत थी अफ़ग़ानिस्तान की सरकार और वहां की अवाम को ख़ुद अपने दम पर तालिबान से लड़ने की, लेकिन वो न तब हो सका और न अब 20 साल बाद जब फिर तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में हुक़ूमत को तैयार है तब दुनिया दो धड़ों में बंटी नज़र आ रही है. एक गुट चीन और पाकिस्तान जैसे देशों का है जो तालिबान के साथ अच्छे रिश्ते को तैयार हैं तो वहीं दूसरी ओर भारत, रूस और ब्रिटेन जैसे मुल्क़ हैं जो साफ़ कर चुके हैं कि वो किसी क़ीमत पर तालिबानी सल्तनत को मान्यता नहीं देंगे. अब ये तो वक़्त बताएगा कि क्या फिर अफ़ग़ानिस्तान को अमेरिका जैसे किसी सुपरपावर का साथ मिलेगा या फिर उसे अपने अस्तित्व की लड़ाई ख़ुद ही लड़नी पड़ेगी.


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