विज्ञान

ये है सबसे भयावह मेडिकल एक्सपेरिमेंट, जानकर रूह कांप जाएगी

jantaserishta.com
18 Feb 2022 8:15 AM GMT
ये है सबसे भयावह मेडिकल एक्सपेरिमेंट, जानकर रूह कांप जाएगी
x

नई दिल्ली: दुनिया में कई ऐसे मेडिकल एक्सपेरिमेंट्स (Medical Experiments) हुए हैं, जो बेहद भयावह और इंसानियत को तार-तार करने वाले थे. कुछ वैज्ञानिकों के पागलपन का नतीजा थे, तो कुछ तानाशाहों और शासकों के दिमाग की खुराफात. विज्ञान (Science) ज्यादातर समय लोगों के जीवन की रक्षा करता है, उसे बेहतर बनाता है. लेकिन कभी-कभी उसके कुछ प्रयोग इतने खतरनाक हो जाते हैं कि वो अपराध की श्रेणी में आ जाते हैं. जानते हैं दुनिया के 9 सबसे खतरनाक मेडिकल एक्सपेरिमेंट्स के बारे में...

एकसाथ हुए तीन बच्चों को अलग करना
ये बात है 1960 और 70 के दशक की, जब पीटर न्यूबॉएर और वायोला बर्नाड ने कई क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट के साथ मिलकर जुड़वा (Twins) और तिड़वा (Triplets) को अलग करके सिंगल आइडेंटिटी के रूप में देखते थे. कहा जाता है कि इस एक्सपेरिमेंट को आंशिक रूप से नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ ने फंडिंग की थी. इस छिपे हुए एक्सपेरिमेंट के बारे में तब पता चला जब ट्रिपलेट्स 1980 में अचानक कहीं मिल गए. उन्हें कोई आइडिया नहीं था कि वो तीनों भाई-बहन हैं. इनमें से एक भाई डेविड केलमैन ने कहा कि हमें प्रयोग के नाम पर धोखा दिया गया. नहीं तो 20 साल पहले से एकसाथ होते. डेविड के भाई एडवर्ड गैलैंड ने 1995 में खुदकुशी कर ली. पीटर न्यूबॉएर की स्टडी 1996 में नेचर थंबप्रिंटः द न्यू जेनेटिक्स ऑफ पर्सनैलिटी में छपी थी.
नाजी मेडिकल एक्सपेरिमेंट्स
यह संभवतः दुनिया का सबसे भयावह मेडिकल एक्सपेरिमेंट था. इसे होलोकास्ट के दौरान ऑशविट्ज में एसएस फिजिशियन डॉ. जोसेफ मेंगेल ने किया था. वह ट्रेन से कैंप में आने वाले जुड़वा और अन्य लोगों पर एक्सपेरिमेंट कर रहा था. वह यह देखना चाहता था कि आर्य (Arya) कैसे अन्य नस्लों से बेहतर है. इस प्रक्रिया में कई लोग मारे गए. यूएस होलोकॉस्ट मेमोरियल म्यूजियम के मुताबिक डॉ. मेंगेल मरने वाले कई मरीजों की आंखें निकालकर जमा करता था. नाजियों ने कैदियों को एक्सपेरिमेंट के लिए गिनी पिग की तरह उपयोग किया. उनके ऊपर संक्रामक बीमारियों और रसायनिक हथियारों के टेस्ट किए गए. कम तापमान और कब दबाव वाले चेंबर में डालकर विमानन से संबंधी एक्सपेरिमेंट किए गए. एक एक्सपेरिमेंट में तो एक महिला के वक्षस्थलों को तारों से बांध दिया गया था ताकि डॉ. मेंगेल यह देख सके कि उसका बच्चा कितनी देर भूखा रह सकता है.
जापान का यूनिट 731
1930 से 40 के बीच जापानी इंपीरियल सेना ने बायोलॉजिककल हथियारों के परीक्षण के लिए आम लोगों को चुना. ये लोग चीन के थे. ये परीक्षण जापानी सेना के जनरल शिरो इशी के नेतृत्व में हो रहे थे. शिरो इसी यूनिट 731 का मुख्य फिजिशियन था. ऐसा माना जाता है कि इस एक्सपेरिमेंट करीब 2 लाख लोग मारे गए. लेकिन सही आंकड़ें किसी को पता नहीं है. जापानी सेना ने चीनी लोगों पर कई बीमारियों से संबंधित परीक्षण किये. जिसमें प्लेग, एंथ्रेक्स, डिसेंट्री, टाइफाइड, पैराटाइफाइड और कालरा जैसी बीमारियां शामिल थीं. मोंटाना यूनिवर्सिटी के रिसर्चर डॉ. रॉबर्ट केडी पीटरसन ने इन अत्याचारों पर एक रिपोर्ट तैयार की है. इन एक्सपेरिमेंट में संक्रामक मक्खियों को क्ले बम में रखकर टारगेट वाले इलाके में फोड़ दिया जाता था. लोगों को कंपकंपाती सर्दी में खुला छोड़ दिया जाता था. ताकि फ्रॉस्टबाइट हो और उसके बाद उसका इलाज खोजा जा सके. 1990 में जापान ने अपनी इस यूनिट की करतूतों को माना. 2018 में इस यूनिट में शामिल लोगों के नाम का खुलासा किया गया.
द मॉन्स्टर स्टडी
1939 में यूनिवर्सिटी ऑफ आयोवा (University of Iowa) के रिसर्चर्स ने थ्योरी दी की हकलाना एक सीखा हुआ व्यवहार है. जो बच्चे तनाव या बेचैनी में करते हैं. शोधकर्ताओं ने यह बात प्रमाणित करने के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण तरीका अख्तियार किया. उन्होंने अनाथ बच्चों को यह कहना शुरु किया कि वो कुछ दिन बाद हकलाना शुरु कर देंगे. ओहियो सोल्जर्स एंड सेलर्स ऑर्फन्स में बैठकर शोधकर्ता बच्चों के साथ उन्हें हकलाने से संबंधित लक्षणों के बारे में बताते थे. हालांकि इस एक्सपेरिमेंट से किसी बच्चे ने हकलाना शुरु नहीं किया. लेकिन इससे बच्चे अकेलापन, अलग-थलग, बेचैन और शांत रहने लगे. न्यूयॉर्क टाइम्स ने 2003 में आर्टिकल प्रकाशित किया जिसमें इस स्टडी को द मॉन्स्टर स्टडी नाम दिया. इस स्टडी में बचे तीन बच्चों ने साल 2007 में आयोवा प्रशासन और यूनिवर्सिटी पर केस कर दिया.
द बर्क एंड हेअर मर्डर्स
साल 1830 में मेडिकल कॉलेजों में एनाटॉमी के अध्ययन के लिए सिर्फ कानूनी तौर पर मिले शव पर ही एक्सपेरिमेंट या डिसेक्शन कर सकते थे. जिन लोगों को हत्या करने पर मौत की सजा दी जाती थी उनके शव भी दुर्लभ तौर पर ही मिलते थे. तब एनाटॉमिस्ट कब्र के डकैतों को पैसा देकर शवों की चोरी करवाते थे. या फिर खुद ताजा कब्र से शव चुराते थे. एडिनबर्ग बोर्डिंग हाउस के मालिक विलियम हेअर और विलियम बर्क ने एडिनबर्ग एनाटोमी टेबल्स पर ताजा शव पहुंचाए. वह भी बिना कब्र से चोरी किए. 1827 से 1828 तक दोनों ने एक दर्जन से ज्यादा शवों को एनाटॉमिस्ट् रॉबर्ट नॉक्स के पास पहुंचाया. असल में यह शव उनके होते थे जो उनके बोर्डिंग हाउस में रहने आते थे. नॉक्स ने कभी इन शवों पर ध्यान नहीं दिया या फिर देना नहीं चाहा. बाद में बर्क को उसके अपराधों के लिए फांसी की सजा दी गई. इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने डिसेक्शन करने के नियमों में छूट देना शुरु किया.
गुलामों पर सर्जिकल एक्सपेरिमेंट्स
आधुनिक गायनेकोलॉजी के फादर जे. मैरियन सिम्स को उनके एक्सपेरिमेंटल सर्जरी के लिए जाना जाता है. कई बार किसी एक व्यक्ति पर कई बार या फिर अलग-अलग व्यक्तियों पर अलग-अलग. लेकिन ऐसी सर्जरी के लिए वो गुलाम महिलाओं का उपयोग करते थे. जे. मैरियन सिम्स आज भी विवादों से भरे हुए हैं. उनके नाम पर विवाद होता ही रहता है. यह विवाद होता है उस महिला पर किए गए प्रयोग पर जो वेसिको-वेजाइनल फिस्टुला से जूझ रही थी. जिन महिलाओं के वेजाइना और ब्लैडर के बीच फिस्टुला आ जाता था, उसे उस जमाने में समाज अलग-थलग कर देता था. सिम्स ने ऐसी महिलाओं पर बिना एनेस्थिसिया के प्रयोग किया. सिम्स कहते थे कि अगर सर्जरी के दौरान मरीज को दर्द नहीं होगा तो उसकी पीड़ा का पता कैसे चलेगा.
ग्वाटेमाला सिफलिस स्टडी
बहुत से लोगों का मानना है कि अमेरिकी सरकार ने जानबूझकर Tuskgee लोगों को सिफलिस की बीमारी दी थी. मुद्दा ये नहीं था. विवाद तो इस पर उठा कि प्रोफेसर सुजन रेवरबाई ने एक एक्सपेरिमेंट किया. 1946 से 48 के बीच रेवरबाई ने जानबूझकर 1500 ग्वाटेमालन लोगों को सिफलिस से संक्रमित किया. इसमें पुरुष, महिला और बच्चे तीनों शामिल थे. स्टडी इसलिए की जा रही थी कि यह जांच की जा सके कि किस रसायन से बीमारी को रोका जा सकता है. परीक्षण के दौरान किसी तरह का स्टरलाइजेशन नहीं किया जा रहा था. वैक्सीन या गोली के जरिए लोगों को संक्रमित किया गया था. प्रोफेसर सुजन रेवरबाई और उनके साथियों ने इंसानों पर सारे नियम-कायदे तोड़कर प्रयोग किए.
द टस्कीगी स्टडी
मेडिकल एथिक्स यानी चिकित्सा संबंधी नैतिकता पूर्ण नियमों को सबसे ज्यादा अमेरिका में तब अनदेखा किया गया जब एक एक्सपेरिमेंट 40 सालों तक चला. इसका नाम था द टस्कीगी स्टडी. 1932 में सेंटर्स फॉर डिजीस कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने यह स्टडी लॉन्च की थी. ताकि काले लोगों पर सिफलिस के असर की जांच की जा सके. शोधकर्ताओं ने अलबामा में 399 ब्लैक लोगों और 201 स्वस्थ लोगों पर प्रयोग किया. उन्हें बताया गया था कि उनका खून गंदा है. हालांकि प्रयोग में शामिल लोगों को कभी भी सही दवाई या इलाज नहीं दिया गया. 1947 में पेंसिलीन को सिफलिस के इलाज के लिए उपयोग में लाया जाने लगा, तब भी इन लोगों को दवा नहीं दी गई. 1972 में एक अखबार ने इस स्कैंडल का खुलासा किया. जिसके बाद यह प्रयोग बंद हुआ.
द स्टैनफोर्ड प्रिजन एक्सपेरिमेंट
1971 में स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में साइकोलॉजी के प्रोफेसर फिलिप जिम्बार्डो ने एक टेस्ट शुरु किया. जिसका नाम था नेचर ऑफ ह्यूमन नेचर. मकसद था ये जानना कि क्या होता है जब आप अच्छे इंसानों को बुरे हालात में रख देते हैं. प्रो. फिलिप के सवालों को लोग नैतिकता से विपरीत मानते थे. फिलिप ने एक जेल बनाया. कॉलेज स्टूडेंट्स को पैसे देकर उन्हें गार्ड और कैदी बनाया. जो बाद में अत्याचारी गार्ड और परेशान कैदी बनते चले गए. लेकिन दो हफ्ते में ही प्रयोग को बंद करना पड़ा क्योंकि शुरु होने के छह दिन बाद से ही प्रयोग में बवाल होने लगा था. गार्ड दुखी रहने लगे थे. कैदी डिप्रेशन के शिकार हो रहे थे. बाद में पता चला कि फिलिप गार्ड को सख्त होने के लिए कह रहे थे. दबाव बना रहे थे. कैदी जानबूझकर नकली एक्टिंग कर रहे थे. यह खबर लाइव साइंस वेबसाइट में प्रकाशित हुई है.
Next Story