विज्ञान

वैज्ञानिकों को मिला पहला 'लावारिस' ब्लैक होल, जानिए कैसे

Rani Sahu
10 Feb 2022 4:00 PM GMT
वैज्ञानिकों को मिला पहला लावारिस ब्लैक होल, जानिए कैसे
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हमारे वैज्ञानिक लावारिस या दुष्ट या निष्किसित ग्रह (Rogue Planet) से सुदूर दिखाई ना देने वाले तारों की खोज करने लगे हैं

हमारे वैज्ञानिक लावारिस या दुष्ट या निष्किसित ग्रह (Rogue Planet) से सुदूर दिखाई ना देने वाले तारों की खोज करने लगे हैं. ऐसा वे पिछले कई सालों से कर रहे हैं. यह काम सीधे तौर से करना संभव नहीं है क्योंकि ना तो ऐसे ग्रहों की खुद की कोई रोशनी होती है और ना ही इनका कोई तारा होता है जिसके वे चक्कर लगाते हैं जिसकी रोशनी में बदलाव इनके बारे में कोई जानकारी दे सके. वहीं कई सुदूर तारों (Stars) की रोशनी भी हम तक नहीं पहुंच पाती है क्योंकि बीच में गैलेक्सी या दूसरे तारों की रोशनी बाधा डालती है. अब वैज्ञानिकों ने इसी तकनीक से एक नए पिंड की खोज की है जिसे लावारिस ब्लैक होल (Rogue Black Hole) कह सकते हैं.

2009 में हुआ था सबसे पहले जिक्र
लावारिस ब्लैक होल या निष्कासित अथ्वा दुष्ट ब्लैक होल का अस्तित्व लंबे समय से सैद्धांतिक तौर पर मौजूद है. साल 2009 में इसके अस्तित्व का जिक्र हुआ था, लकिन यह कभी ब्रह्माण्ड में 'दिखाई' नहीं दिया. इसकी पहचान छह साल के अवलोकन अभियान से हुई जिसमें दर्जनों लेखकों के योगदान के बाद आर्काइव में प्रकाशित हुआ है. (अभी तक इसका पियर रीव्यू नहीं हुआ है)
एक घटना के आंकड़ों की तलाश
इस अध्ययन के लिए आंकड़े साल 2011 से जुटाए जाने लगे थे जब 20 हजार प्रकाशवर्ष दूर स्थित एक तारा अचानक चमकने लगा. वैज्ञानिक इसी तरह की घटना की तलाश में थे और इस तरह की कुछ घटनाएं पहले भी देख चुके थे, लेकिन उनसे उन्हें पर्याप्त आंकड़े नहीं मिल सके थे. इस घटना से उनकी काफी उम्मीद जाग गईं.
माइक्रोलेंसिंग तकनीक का उपयोग
शोधकर्ताओं ने माइक्रोलेंसिंग तकनीक का उपयोग किया अगर कोई प्रकाशहीन पिंड किसी सुदूर तारे के आगे से गुजरता है तो वह तारा स्रोत हो जाता है जिसके आगे यह पिंड रहता है. इस पिंड का गुरुत्व इस स्रोत से आने वाले प्रकाश को मोड़ सकता है या फिर बड़ा सकता है. इस वजह से पृथ्वी पर मौजूद अवलोकन करने पर इस स्रोत में एक अस्थायी चमक देखाई देती है. इसे ही हम ग्रैविटेशनल माइक्रोलेसिंग की घटना कहते हैं. और इसी का अध्ययन कर पिंड की उपस्थिति की पुष्टि होती है.
दो संकेतों का मिलना
माइक्रोलेंसिंग से पता चलता है कि पृष्ठभूमि का पिंड, तारा या गैलेक्सी ज्यादा ही चमक रहा है. ऐसा ही 2011 में भी दिखा था. इसके अलावा स्थिति अनुकूल होने पर विशालकाय लेंसिंग करने वाला पिंड सामने से गुजरने पर पीछे का पिंड टेलीस्कोप में दूसरी जगह जाता दिखाई देता है. लेकिन अभी तक जगह बदलने जैसा कुछ नहीं दिखा था.
हबल टेलीस्कोप की मदद
कैलाश साहू और उनके साथियों ने हबल टेली स्कोप को इस तारे की ओर घुमाया इसके बाद उन्होंने अगले छह सालों तक इसकी चमक का अवलोकन किया और उसकी स्थिति के आंकड़े भी जुटाए, जिससे छोटे सी गतिविधि से भी माइक्रोलेंसिंग का पता चल सके. इससे उन्होंने तेज प्रकाश और स्थिति परिवर्तन दोनों का तो पता चला, लेकिन यह स्पष्ट नहीं हो सका कि पिंड ब्लैक होल है.
कैसे पता चला ब्लैक होल है
शोधकर्ताओ ने लेंस, यानि जो पिंड प्रकाश पर लेंस जैसे प्रभाव दे रहा है, से आने वाले प्रकाश का स्तर जांचा. उन्होंने पाया है कि यह प्रभाव किसी भूरे बौने तारे या फिर छोटे पिंड का नहीं है. इसके अलावा लेंसिंग के प्रभाव कि अवधि भी ज्यादा लंबी थी जिससे पता चला कि पिंड का गुरुत्व बहुत ज्यादा होना चाहिए. 2011 की घटना 300 दिनों तक चली थी जिससे इस ब्लैक होल का भार सूर्य से करीब 7.1 गुना ज्यादा था.
भार से वैज्ञानिक यह भी पता लगा सके कि यह ब्लैक होल 45 किलोमीटर प्रति सेंकड की गति से घूम रहा है जबकि आसपास के तारों की इतनी गति नहीं है. इससे भी इसके ब्लैक होल होने की पुष्टि हुई. शोधकर्ताओं का अनुमान है किएक अतिविशालकाय तारे के विस्फोट से यह ब्लैक बना होगा और दूर चल गया होगा. यह घटना 10 करोड़ साल पहले हुई होगी. आने वाले दिनों में और अधिक अवलोकन होने से ऐसे और भी ब्लैक होल खोजे जा सकते हैं.
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