विज्ञान

इस तरह भारत में 200 साल पहले लगी थी पहली वैक्सीन!

Triveni
23 Jun 2021 3:12 AM GMT
इस तरह भारत में 200 साल पहले लगी थी पहली वैक्सीन!
x
टीकाकरण की नीति में बदलाव के साथ ही देश में कोरोना के खिलाफ वैक्सीन लगने में तेजी आ चुकी है.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| टीकाकरण की नीति में बदलाव के साथ ही देश में कोरोना के खिलाफ वैक्सीन लगने में तेजी आ चुकी है. इधर दुनिया के कई कम आबादी वाले विकसित देश टीकाकरण के अंतिम चरण में पहुंचने का दावा कर रहे हैं. कुल मिलाकर वैक्सीन लगवाने की होड़ मची हुई है लेकिन जब वैक्सीन दुनिया में पहली-पहली बार आई थी, तो हालात दूसरे थे. लोग बीमारियों को ईश्वरीय प्रकोप मानते और वैक्सीन लगवाने से डरते थे. इसके अलावा एक देश से दूसरे देश तक वैक्सीन की खेप को सही-सलामत पहुंचाना भी बड़ी समस्या थी.

अजीबोगरीब थीं मान्यताएं
पुराने समय में कोरोना वायरस तो नहीं था लेकिन कई संक्रामक बीमारियों का जिक्र मिलता है, जैसे हैजा, चेचक, प्लेग, रेबीज, टीबी और पोलियो. हरेक बीमारी के कारण लाखों-करोड़ों जानें गईं. तब इन बीमारियों का कोई इलाज नहीं था, बल्कि जानकार अलग-अलग तरीकों से इलाज की कोशिश करते थे. जैसे किसी बीमारी में मरीज के प्रभावित अंग को आग से जला दिया जाता था. यूरोप में लोग खुद को अजीबोगरीब तरीके से प्रताड़ना भी देते थे. इनमें भूखा रहने से लेकर खुद को कोड़े मारना भी शामिल था.
पूजा-पाठ से इलाज
भारत में भी स्मॉलपॉक्स को ईश्वर का प्रकोप मानते हुए इलाज के लिए पूजा-पाठ होता था. इस दौरान एक देवी को पानी चढ़ाया जाता, जिसे शीतला माता कहते हैं. आज भी ग्रामीण हिस्सों में ये धारणा है कि माता शीतला को पानी अर्पित करने से बीमारी में आराम मिलता है.
स्मॉलपॉक्स में आराम के लिए माता शीतला की पूजा होती थी- सांकेतिक फोटो
आगे चलकर मेडिकल साइंस ने तरक्की की
वैज्ञानिकों को अंदाजा होने लगा था कि टीके जैसा कोई प्रयोग करके देखा जा सकता है. इसी दौर में साल 1976 में अंग्रेज चिकित्सक एडवर्ड जेनर ने चेचक का टीका खोजा. आज जिस चेचक को हम सामान्य बात मानते हैं, वो तब काफी गंभीर बीमारी थी, जिससे जानें भी जाती हैं. संक्रमित बच्चों में मृत्यु दर 80 फीसदी थी. इसके अलावा लोगों की आंखें चली जाती थीं या फिर कई बार दिमाग तक असर जाता था.
देश में चेचक काफी भयावह था
नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफॉर्मेशन (NCBI) की वेबसाइट में चेचक की भयावहता के बारे में बताया गया है. माना जाता है कि प्राचीन ग्रीस या भारत में लगभग 3 हजार साल पहले ये बीमारी आई थी. उस समय का तो कोई प्रमाण नहीं लेकिन साल 1545 एडी में पहली बार जो मामले दर्ज हुए, वो गोवा के थे, जहां चेचक के कारण लगभग 8 हजार बच्चों की जान गई. इतिहासकार तब इस बीमारी को इंडियन प्लेग भी कहा करते थे.
टीका लेने और टीकाकरण के ट्रायल में शामिल होने से डरते थे- सांकेतिक फोटो
युद्ध बंदियों पर हुआ ट्रायल
बीमारी के इतने खतरनाक होने के बाद भी चेचक का टीका आने के बाद ऐसा नहीं था कि लोग इसे लेने को उतावले थे, बल्कि वे टीका लेने और टीकाकरण के ट्रायल में शामिल होने से डरते थे. तब युद्ध बंदियों पर टीकों का ट्रायल होने लगा. आखिरकार जेनर का चेचक का टीका पूरी तरह से सफल माना गया और साल 1799 में देश-दुनिया में लगाए जाने की अनुमति मिल गई.
भारत तक पहुंचने में हुई खासी समस्या
टीका बनने के तुरंत बाद से उसे भारत लाने की कोशिश शुरू हुई लेकिन रास्ते में कई अड़चनें थीं. जैसे समुद्र के रास्ते से खेप भेजने पर टीका एक्सपायर हो जाता था. ऐसे में उसे लगाने का कोई मतलब नहीं था. अगर टीके पहुंच भी जाएं तो देश में कोल्ड चेन का बंदोबस्त नहीं था कि उन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सके. बता दें कि हरेक टीके के लिए एक निश्चित तापमान होता है, जिसपर उसे सेफ रखा जाता है. भारत की गर्मी टीकों को समय से पहले ही एक्सपायर कर देती थी.
बहुत मुश्किल से पहला टीका सुरक्षित भारत आ सका- सांकेतिक फोटो
चार सालों बाद देश पहुंच सका
इसके लिए खास पैकेजिंग तैयार हुई ताकि वो समुद्र की नमी सह सके और देश के गर्म तापमान का असर न हो. खास रूट से होते हुए वैक्सीन तेजी से भारत पहुंची. अब सवाल ये था कि सबसे पहले किसे वैक्सीन दी जाए क्योंकि भारतीयों को जबर्दस्ती देने से विद्रोह का खतरा था. लिहाजा एक ब्रिटिश कर्मचारी की 3 साल की बेटी को टीका मिला. इसके बाद ये पूरे देश में फैला.
हजारों साल पहले भी भारत में था टीके का बेसिक कंसेप्ट
ये तो हुई पहली आधिकारिक वैक्सीन की बात लेकिन माना जाता है कि प्राचीन भारत समेत चीन और तुर्की में टीकाकरण का कंसेप्ट पहले ही समझा जा चुका था. बता दें कि तब भारत में मेडिकल साइंस काफी आगे था और कई तरह की सर्जरी भी आयुर्वेद में होती थी. 1000 एडी में भारतीय चिकित्सक समझ चुके थे कि बीमारी के वायरस का छोटा हिस्सा शरीर में डालने पर हल्की बीमारी तो होती है लेकिन फिर गंभीर होने से बचा जा सकता था.
खुद ब्रिटिश डॉक्टर ने स्वीकारा
ये प्रैक्टिस तब देश में कॉमन थी. बंगाल और मुंबई (तब बॉम्बे) से ऐसी कई खबरें आई थीं. अंग्रेज डॉक्टर जेजेड हॉलवेल ने इसे लिखा भी था. लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने इसे बंद करा दिया था.


Next Story