विज्ञान

मिली ऐसी मकड़ी जो चमकती थी, इसी वजह से 2.3 करोड़ साल सलामत रहा जीवाश्म

Tulsi Rao
25 April 2022 5:20 AM GMT
मिली ऐसी मकड़ी जो चमकती थी, इसी वजह से 2.3 करोड़ साल सलामत रहा जीवाश्म
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क। जानवरों का यूवी लाइट (Ultraviolet Light) में चमकना आम है. कुछ जानवारों की चोंच यूवी लाइट में चमकती है, तो उल्लू के पंख भी इस रौशनी में चमकते हैं. इसे बायोफ्लोरेसेंस (Biofluorescence) कहते हैं. हाल ही में वैज्ञानिकों को चमकने वाली एक मकड़ी के बारे में पता चला है.

वैज्ञानिकों को फ्रांस में एक मकड़ी के जीवाश्म (Fossil) मिले हैं, जो अल्ट्रा वॉयलेट रैशनी में चमकती थी. कहा जा रहा है कि एक छोटी सी मकड़ी के जीवाश्म का 2.30 करोड़ साल तक सही सलामत रहने की वजह इसका चमकना ही था.
कम्यूनिकेशन अर्थ एंड एनवायरमेंट (Communications Earth & Environment) में पब्लिश हुई स्टडी के मुताबिक, जब शोधकर्ताओं ने इस जीवाश्म को एक फ्लोरोसेंट माइक्रोस्कोप के नीचे रखा, तो उन्हें अरचिन्ड (Arachnids) की एक पतली सी आउटलाइन दिखाई दी.
यूवी रौशनी में चमकती मकड़ी
कैनसस यूनिवर्सिटी (University of Kansas) के जीयोलॉजिस्ट एलिसन ओल्कोट (Alison Olcott) का कहना है कि जब वह जीवाश्म चमके, तो हम इसकी कैमेस्ट्री जानने के लिए बहुत उत्सुक थे. तरह-तरह की स्कैनिंग टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से किए गए विश्लेषण से पता चला कि जीवाश्म का ज़्यादातर हिस्सा जिस खनिज से बना उसमें सिलिकॉन पाया गया है. जीवाश्मों पर गहरे रंग के धब्बे भी पाए गए जो कार्बन और सल्फर की बड़ी मात्रा को दर्शाते हैं.
यूवी रौशनी में चमकता मकड़ी का जीवाश्म
करीब से देखने पर पाया गया कि ये मकड़ियां अकेली नहीं थीं. इनके साथ में मिले जीवाश्म का जो समूह मिला था, उन्हें फ्रांस में ऐक्स-एन-प्रोवेंस (Aix-en-Provence) जीवाश्म वाली जगह पहले कभी नहीं देखा गया. वैज्ञानिकों के मुताबिक, मकड़ी के जीवाश्मों के चारों ओर हजारों माइक्रोएल्गी (Microalgae) मिले हैं.
सदियों से वैज्ञानिक फ्रांस के इस इलाके में पाए जाने वाले कीड़ों और मछलियों के जीवाश्मों का अध्ययन कर रहे हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि अब हम समझने लगे हैं कि ये छोटे जीव इतने लंबे समय तक कैसे संरक्षित रहे.
यूवी रौशनी में चमकता मकड़ी का जीवाश्म
शरीर का खोल, दांत और हड्डियों को छोड़ दें, तो टिशू के जीवाश्म शायद ही कभी बनते हैं. लेकिन ऐसा सिर्फ खास परिस्थितियों में ही संभव है. पहले वैज्ञानिकों ने तर्क दिया था कि अगर टिशू, एक सेल वाले एल्गी या शैवाल के साथ दफन होते हैं, तो यह इन्हें ऑक्सीजन के खराब होने वाले प्रभावों से बचा सकता है. लेकिन यह नई खोज बताती है कि इसमें ऑक्सीजन के अलावा भी कुछ और था.
अगर डायटम अपने मैट में चिपचिपा पदार्थ उत्पन्न करते हैं, तो यह अन्य जीवों के टिशू में पाए जाने वाले ऑर्गैनिक पॉलीमर के साथ रिएक्ट कर सकता है. इससे सल्फराइजेशन (Sulfurization) हो सकता है, जो मकड़ी के एक्सोस्कैलेटन से कार्बन यूनिट लेता है. इसे शैवाल मैट से सल्फर के साथ क्रॉस-लिंक करता है. नतीजा ये होता है कि कार्बन स्थिर हो जाता है. इसे जल्दी खराब होने से बचाता है.
अक्सर जब इस तरह के जीवाश्मों का अध्ययन किया जाता है, तो उनकी जांच सिर्फ मैक्रोस्कोपिक स्केल पर की जाती है, माइक्रोस्कोपिक स्केल पर नहीं. लेकिन इस नए शोध के नतीजों कुछ और बताते हैं.
जब वैश्विक महामारी की वजह से लैब का काम ठप हो गया था, तो शोधकर्ताओं ने जीवाश्मों की जांच माइक्रोस्कोपिक स्केल पर की. ऐसा करने पर उन्हें कुछ ऐसा दिखाई दिया जिसे अभी तक किसी ने रिपोर्ट नहीं किया था. जबकि ऐक्स-एन-प्रोवेंस से मिले जीवाश्मों पर सदियों से काम हो रहा था.
एलिसन ओल्कोट कहते हैं, 'हमारा अगला कदम होगा बाकी जीवाश्मों पर भी इन्हीं तकनीकों का इस्तेमाल करना, ताकि यह देखा जा सके कि संरक्षण डायटम मैट से जुड़ा हुआ है या नहीं


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