विज्ञान

IPCC एक्सपर्ट : भारत के 50% हिस्‍से में जलवायु परिवर्तन लाएगा तबाही, संकट में देश के 40 करोड़ लोग

Rani Sahu
10 Aug 2021 1:45 PM GMT
IPCC एक्सपर्ट : भारत के 50% हिस्‍से में जलवायु परिवर्तन लाएगा तबाही, संकट में देश के 40 करोड़ लोग
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जलवायु परिवर्तन से धरती को होने वाले खतरे को साफ करती संयुक्त राष्ट्र की नई रिपोर्ट सामने आ चुकी है

जलवायु परिवर्तन से धरती को होने वाले खतरे को साफ करती संयुक्त राष्ट्र की नई रिपोर्ट सामने आ चुकी है। पहले की रिपोर्ट्स में जिन खतरों की आशंकाए जताई गई थीं, IPCC (Intergovernmental Panel on Climate Change) की ताजा रिपोर्ट से अब उन पर काफी हद तक मुहर लग चुकी है। यह भी साफ है कि बदतर होते हालात के पीछे इंसानों का हाथ है। ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि भारत के लिए नई रिपोर्ट कितनी चिंताजनक है?

IPCC की मौजूदा छठी असेसमेंट साइकल के लिए शहरों, सेटलमेंट और इन्फ्रास्ट्रक्चर और पहाड़ों के चैप्टर के लीड लेखक डॉ. अंजल प्रकाश ने नवभारत टाइम्स ऑनलाइन को बताया है कि भारत के करोड़ों लोगों को इसके कारण भारी संकट का सामना करना पड़ेगा। उनका मानना है कि जलवायु परिवर्तन को आज सिर्फ पर्यावरण के लिहाज से नहीं, रोजगार जैसे सेक्टर्स के साथ जोड़कर देखना चाहिए और इसके लिए नए मंत्रालय और कड़ी नीतियों को लागू किए बिना समाधान संभव नहीं है।
सवाल: तापमान बढ़ने से हीटवेव का भारत पर क्या खतरा होगा?
भारत का 54% भूगोलिक हिस्सा arid (शुष्क) और सेमी-एरिड कंडीशन्स में आता है। नई रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्सर्जन के आधार पर हम अगले 10-20 साल में तापमान में 1.5 डिग्री की बढ़ोतरी पर पहुंच जाएंगे। यह भारत के लिए बुरी खबर है क्योंकि गर्मी बढ़ने का भारत के 50% हिस्से और ऐसे लोगों पर भारी प्रभाव पड़ेगा जिनका जीवन पर्यावरण पर सीधे निर्भर करता है। रिपोर्ट के मुताबिक इस गति से गर्मी बढ़ना मानव इतिहास में कम से कम 2000 साल में पहली बार देखा गया है।
रिपोर्ट कहती है कि औद्योगिक काल के पहले के समय से हुई लगभग पूरी तापमान वृद्धि कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन जैसी गर्मी को सोखने वाली गैसों के उत्सर्जन से हुई। इसमें से अधिकतर इंसानों के कोयला, तेल, लकड़ी और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन जलाए जाने के कारण हैं। वैज्ञानिकों ने कहा कि 19वीं सदी से दर्ज किए जा रहे तापमान में हुई वृद्धि में प्राकृतिक वजहों का योगदान बहुत ही थोड़ा है। गौर करने वाली बात यह है कि पिछली रिपोर्ट में इंसानी गतिविधियों के इसके पीछे जिम्मेदार होने की 'संभावना' जताई गई थी जबकि इस बार इसे ही सबसे बड़ा कारण माना गया है।
करीब 200 देशों ने 2015 के ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसका उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस (3.6 डिग्री फारेनहाइट) से कम रखना है और वह पूर्व औद्योगिक समय की तुलना में सदी के अंत तक 1.5 डिग्री सेल्सियस (2.7 फारेनहाइट) से अधिक नहीं हो।
रिपोर्ट के 200 से ज्यादा लेखक पांच परिदृश्यों को देखते हैं और यह रिपोर्ट कहती है कि किसी भी सूरत में दुनिया 2030 के दशक में 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान के आंकड़े को पार कर लेगी जो पुराने पूर्वानुमानों से काफी पहले है। उन परिदृश्यों में से तीन परिदृश्यों में पूर्व औद्योगिक समय के औसत तापमान से दो डिग्री सेल्सियस से ज्यादा की वृद्धि दर्ज की जाएगी।
रिपोर्ट 3000 पन्नों से ज्यादा की है और इसे 234 वैज्ञानिकों ने तैयार किया है। इसमें कहा गया है कि तापमान से समुद्र स्तर बढ़ रहा है, बर्फ का दायरा सिकुड़ रहा है और प्रचंड लू, सूखा, बाढ़ और तूफान की घटनाएं बढ़ रही हैं। ऊष्णकटिबंधीय चक्रवात और मजबूत और बारिश वाले हो रहे हैं जबकि आर्कटिक समुद्र में गर्मियों में बर्फ पिघल रही है और इस क्षेत्र में हमेशा जमी रहने वाली बर्फ का दायरा घट रहा है। यह सभी चीजें और खराब होती जाएंगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि इंसानों द्वारा वायुमंडल में उत्सर्जित की जा चुकी हरित गैसों के कारण तापमान 'लॉक्ड इन' (निर्धारित) हो चुका है। इसका मतलब है कि अगर उत्सर्जन में नाटकीय रूप से कमी आ भी जाती है, कुछ बदलावों को सदियों तक 'पलटा' नहीं जा सकेगा।
इस रिपोर्ट के कई पूर्वानुमान ग्रह पर इंसानों के प्रभाव और आगे आने वाले परिणाम को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त कर रहे हैं लेकिन आईपीसीसी को कुछ हौसला बढ़ाने वाले संकेत भी मिले हैं, जैसे - विनाशकारी बर्फ की चादर के ढहने और समुद्र के बहाव में अचानक कमी जैसी घटनाओं की कम संभावना है हालांकि इन्हें पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। आईपीसीसी सरकार और संगठनों द्वारा स्वतंत्र विशेषज्ञों की समिति जलवायु परिवर्तन पर श्रेष्ठ संभव वैज्ञानिक सहमति प्रदान करने के उद्देश्य से बनाई गई है। ये वैज्ञानिक वैश्विक तापमान में वृद्धि से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर समय-समय पर रिपोर्ट देते रहते हैं जो आगे की दिशा निर्धारित करने में अहम होती है।
IPCC की नई रिपोर्ट के मुताबिक हम इन एक्सट्रीम घटनाओं की तीव्रता, गंभीरता और संख्या में भविष्य में बढ़ोतरी देखेंगे। इससे भारत के लोगों पर भारी असर होगा, खासकर ऐसे 40 करोड़ लोगों पर जिनका रोजगार पर्यावरण से जुड़े संसाधनों पर निर्भर करता है।
सवाल: 21वीं सदी में तटीय इलाकों में समुद्र स्तर बढ़ेगा जिससे निचले इलाकों में बाढ़ का संकट गहराएगा। भारतीय प्रायद्वीप के लिए इससे कितना खतरा है?
समुद्र का वैश्विक औसतन स्तर 0.20 [0.15 से 0.25] m तक 1901 और 2018 के बीच बढ़ा है। 1901-1971 के बीच औसतन बढ़त 1.3 [0.6 से 2.1] mm प्रति वर्ष, 1971- 2006 के बीच 1.9 [0.8 to 2.9] mm प्रति वर्षऔर 2006- 2018 के बीच 3.7 [3.2 to 4.2] mm प्रतिवर्ष की दर से बढ़ी है। IPCC वैज्ञानिकों को विश्वास है कि अभी जैसे हालात हैं, अगर वैसे ही चलता रहा तो समुद्रस्तर और बढ़ेगा और 1900 के बाद से औसतन समुद्रस्तर का बढ़ना इससे 3000 पहले तक नहीं देखा गया था। भारत का तट 7500 मीटर लंबा है और इसके किनारे भारी आबादी रहती है जो मत्स्यपालन और पर्यटन जैसे रोजगार पर निर्भर है। ये यकीनन खतरे में हैं।
सवाल: इससे निपटने और बचने के लिए भारत की नीतिया कितनी पर्याप्त हैं?
भारत की नीतियां काफी अच्छी हैं। दिक्कत है इन्हें लागू करने में। अभी जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को पर्यावरण और वन मंत्रालय का 'बैकयार्ड समूह' सुलझा रहा है। आज जलवायु परिवर्तन पर्यावरण या जंगलों से कहीं ज्यादा है, इस मुद्दे को अलग-अलग सेक्टर्स को समझना चाहिए जिससे इससे बचने और निपटने की कोशिशों को बैलेंस किया जा सके। हमें जलवायु परिवर्तन के लिए नया और अलग मंत्रालय चाहिए जो नई चुनौतियों के खिलाफ रणनीति बनाए और उनका सामना करे। ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक क्लाइमेट चेंज पर्यावरण और वन मंत्रालय का बाहरी हिस्सा बना रहता है।
सवाल: हमें समुद्र, ग्लेशियर और गर्मी- तीनों का खतरा है। तमाम कोशिशों के बाद भी भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से सहयोग की जरूरत होगी, चाहे टेक्नॉलजी ट्रांसफर हो, वित्तीय समस्या हो या उनके खुद के कार्बन उत्सर्जन को कम करना। क्या हमें वह सहयोग मिला है?
नहीं, हमारे पास पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय सहयोग नहीं है। मुझे चीजें तब तक बदलती नहीं दिखती हैं जब तक औद्योगिक उत्तर को वैश्विक दक्षिण से चुनौती नहीं मिलती। वैश्विक दक्षिण के देशों को साथ लाने और ऐसे देशों से समझौता करने में भारत एक वर्ल्ड लीडर की तरह है जो सबसे ज्यादा प्रदूषण करते हैं। वैश्विस सौर सहयोग इसका अच्छा उदाहरण है। हालांकि, पहले हमें अपने यहां चीजें सही करनी होंगी और वह तब होगा जब हम जलवायु परिवर्तन के असर से बचने और निपटने के लिए कड़े कदम उठाएं।
सवाल: IPCC की रिपोर्ट कैसे तैयार होती है?
IPCC की रिपोर्ट्स को 5-7 साल के दौरान असेस किया जाता है। अभी छठा असेसमेंट चल रहा है और पूरी रिपोर्ट सल 2022 में आएगी। करीब 8 साल पहले एक रिपोर्ट आई थी। छठे हिस्से की पहली रिपोर्ट सामने आई है। इसके लिए सभी देश रजामंदी देते हैं जब इसकी वैज्ञानिक और नीतिगत सटीकता से संतुष्ट हो जाते हैं। IPCC के अंदर 3 समूह हैं। पहला क्लाइमेट सिस्टम और चेंज के फिजिकल विज्ञान को देखता है, दूसरा सामाजिक-आर्थिक और प्राकृतिक सिस्टम पर खतरे को समझता है और तीसरा इससे बचने के तरीके खोजता है।


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