विज्ञान

भारत के लिए खतरनाक! थाली से कम होगा चावल, सामने आई ये रिपोर्ट

jantaserishta.com
2 March 2022 7:11 AM GMT
भारत के लिए खतरनाक! थाली से कम होगा चावल, सामने आई ये रिपोर्ट
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नई दिल्ली: जलवायु परिवर्तन (Climate Change) से भारत में बहुत ज्यादा दिक्कतें आने वाली हैं. ये हिमालय के पहाड़ों से लेकर, शहरों के प्रदूषण तक और उसके बाद गांवों में फसलों के उत्पादन तक असर दिखाएगा. इंटरगवर्नमेंटल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज (IPCC) की नई रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन को भारत के लिए खतरनाक बताया गया है. इसका असर भारत के हर कोने पर पड़ेगा. वैश्विक गर्मी (Global Warming) और जलवायु परिवर्तन की वजह से एशिया के ज्यादातर देशों को इस सदी के अंत तक सूखे का सामना करना होगा. यानी पानी खत्म हो रहा है.

अगर इस सदी के अंत तक औसत तापमान में 1 से 4 फीसदी की गिरावट आती है, तो भारत में चावल का उत्पादन (Rice Production) 10 से 30 फीसदी कम हो जाएगा. वहीं, मक्के की पैदावार (Maize Crop) में 25 से 70 फीसदी की गिरावट आने की आशंका है. भारत के साथ-साथ कंबोडिया में चावल का उत्पादन 45 फीसदी कम हो सकता है. जलवायु परिवर्तन और वैश्विक गर्मी की वजह से ऐसे कीड़े की संख्या तेजी से बढ़ रही है, जिसे गोल्डेन एपल स्नेल (Golden Apple Snail) कहते हैं. यह भारत, चीन, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, वियतनाम, थाईलैंड, म्यांमार, फिलिपींस और जापान में चावल उत्पादन को रोकेगा.
लगातार जलवायु में बदलाव होने की वजह से साल 2019 में सिर्फ बांग्लादेश, चीन, भारत और फिलिपींस में 40 लाख से ज्यादा लोग आपदाओं की वजह से विस्थापित हुए. दक्षिण-पूर्व और पूर्व एशिया में चक्रवाती बाढ़ और तूफानों की वजह से इस इलाके के अंदर ही 96 लाख लोगों को विस्थापन हुआ है. यह पूरी दुनिया में प्राकृतिक आपदाओं की वजह से हुए विस्थापन का 30 फीसदी हिस्सा है. घोर प्राकृतिक आपदाओं के भारत और पाकिस्तान में आने की आशंका बहुत ज्यादा हो गई है. इससे दोनों देशों की खाद्य और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर बुरा असर होगा.
पूरी दुनिया में जितनी ऊर्जा की खपत हो रही है, उसमें एशिया में 36 फीसदी खपत होती है. चीन और भारत और ASEAN देश सबसे ज्यादा ऊर्जा की खपत करने वाले देश हैं. साल 2040 तक एशिया में कोयले की खपत 80%, नेचुरल गैस की 26% और बिजली की खपत 52% और बढ़ जाएगी. 2050 तक एशिया में ऊर्जा खपत की हिस्सेदारी 48 फीसदी हो जाएगी. भारत जैसा देश कोयला आधारित ऊर्जा उत्पादन पर ज्यादा निर्भर है. अगले दस साल में चीन अमेरिका को तेल की खपत के मामले में पिछाड़ देगा. ,साल 2040 तक भारत अमेरिका की जगह ले लेगा. यानी चीन के बाद दूसरे नंबर पर आ जाएगा.
भारत में करीब 23 करोड़ लोगों के पास बिजली की सप्लाई नहीं है. 80 करोड़ लोग आज भी ठोस ईंधन पर खाना पकाते हैं. यानी लकड़ी या कोयले पर. एशिया में जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता अब भी बहुत ज्यादा है. साल 2013 तक जीवाश्म ईंधन पर चीन में 88.3% निर्भरता, भारत में 72.3%, जापान में 89.6% और कोरिया में 82.8% निर्भरता थी. एशिया में आधे से ज्यादा बिजली उत्पादन के लिए देश एक ही सोर्स पर निर्भर हैं. जैसे भारत 67.9% कोयले पर, नेपाल 99.9% हाइड्रोपावर पर, बांग्लादेश 91.5% नेचुरल गैस पर और श्रीलंका 50.2% तेल पर.
जलवायु परिवर्तन (Climate Change) की वजह से कई जीवों की प्रजातियां भी खत्म हो रही हैं. दार्जीलिंग जिले में जलवायु परिवर्तन की वजह से काई (Lichen) की एक प्रजाति में काफी ज्यादा बदलाव देखने को मिला है. भारत, चीन, और नेपाल के पवित्र कैलाश (Sacred Kailash Landscape) में साल 2050 तक कई बदलाव देखने को मिलेंगे. ग्लेशियर और बर्फ पिघल जाएगी. ऊंचे इलाकों के पौधे खत्म होंगे, निचले इलाकों के पौधे बढ़ेंगे. ग्लेशियर पिघलने से नदियां सूखेंगी.
लगातार बढ़ रहे ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से मध्य एशिया, रूस (Russia), चीन और भारत में जंगल की आग का खतरा बढ़ने की आशंका है. जंगल की आग लगने से कई पेड़-पौधे, उभयचरी जीव, पक्षी, सरिसृप और स्तनधारी जीव खत्म होंगे या फिर दूसरी जगह भाग जाएंगे. भारत में जंगल की आग का सबसे ज्यादा खतरा मंडरा रहा है पश्चिमी घाट (Western Ghats) पर. यहीं से जीवों का खात्मा भी होगा और पलायन भी.
भारत में बंगाल की खाड़ी (Bay of Bengal) में मौजूद पाक की खाड़ी (Palk Bay) में कोरल रीफ्स यानी मूंगा पत्थर खराब हो रहे हैं. उनकी बहुत तेजी से ब्लीचिंग हो रही है. साल 2016 से ब्लीचिंग की समस्या तेजी से बढ़ गई है. सिर्फ इतना ही नहीं, बढ़ती गर्मी और जलवायु परिवर्तन की वजह से समुद्र में बीमारी फैलाने वाले पैथोजेंस और वायरसों की संख्या भी बढ़ेगी. इनका खतरा भारत के समुद्री इलाकों समेत कई एशियाई देशों में है.
हिंद महासागर में मूंगा पत्थरों के उत्पादन और उनके लिए काम करने वाले करीब 15 लाख मछुआरे हैं. मूंगा पत्थरों को नुकसान होगा तो इन्हें नुकसान होगा. साल 2004 में आई सुनामी की वजह से मैनग्रूव्स को काफी ज्यादा नुकसान हुआ. मैनग्रूव्स तटों को बड़ी लहरों से बचाने में मदद करते हैं. अगर किसी इलाके में ज्यादा मैनग्रूव्स हैं यानी उस इलाके में सुनामी की लहरों का असर कम होगा. अगर कहीं ब्लीचिंग या प्रदूषण का स्तर बढ़ता है तो ये मैनग्रूव्स इन्हें साफ करके समुद्र के इको सिस्टम को सही रखते हैं.
पानी की किल्लत भारत-पाकिस्तान में ज्यादा होगी. क्योंकि हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से नदियां सूखेंगी. साथ ही बढ़ती आबादी की वजह से पानी की डिमांड और सप्लाई पर भी असर पड़ेगा. 21वीं सदी के मध्य तक ट्रांसबाउंड्री नदियों के बेसिन जैसे अमु दारया, सिंधु नदी, गंगा में लगातार पानी की कमी होगी. प्रदूषण का स्तर बढ़ेगा. देश के अंदर भी पानी की किल्लत होगी. भारत और चीन के हिमालयी नदियां सूखेंगी तो एशिया का बहुत बड़ा इलाका सूखे की ओर बढ़ जाएगा. गुरुग्राम, हैदराबाद जैसे शहरों में भूजल का अत्यधिक दुरुपयोग हो रहा है. यहां निकट भविष्य में पानी की भारी किल्लत हो सकती है.
हिमालयी नदियों के ऊपर और अन्य स्थानों पर बने ग्लेशियल लेक्स (Glacial Lakes) के फटने और बहने की वजह से आपदाओं के आने की आशंका बढ़ रही है. साल 2013 में केदारनाथ के ऊपर चोराबारी ग्लेशियल लेक फटने से जो आपदा आई थी, वह भयावह थी. पिछले कुछ दशकों में नेपाल में भी 24 से ज्यादा ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं. हालांकि बढ़ते तापमान की वजह से हिमालय के ग्लेशियरों का पिघलना तेजी से जारी है.
शहरीकरण, जंगलों के कटाव समेत अन्य कई वजहों से शहर के शहर और गावं के गांव बाढ़ की समस्या से जूझेंगे. पिछले कुछ सालों में गंगा-ब्रह्मपुत्र के इलाकों में बाढ़ की घटनाएं बढ़ गई हैं. दक्षिण एशिया में नई समस्या पैदा हो रही है. वह ये है कि नदियां अपना रास्ता बदल रही है. साल 2010 में सिंधु नदी में आई बाढ़ ने पाकिस्तान में रास्ता ही बदल दिया. जिससे वह गुजरात के कच्छ की तरफ आ गया. गंगा नदी की पूर्वी शाखाएं कोसी नदी के बेसिन में पश्चिम की तरफ 113 किलोमीटर खिसक चुकी हैं. यह काम दो सदियों के अंदर हुआ है. यानी हिमालय से काफी ज्यादा सेडिमेंट बहकर नीचे की ओर आ रहा है.

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