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धरती पर बरमूडा ट्रायऐंगल का रहस्य आज तक सुलझ नहीं सका है
धरती पर बरमूडा ट्रायऐंगल का रहस्य आज तक सुलझ नहीं सका है और अंतरिक्ष में ऐसा ही क्षेत्र वैज्ञानिकों की परेशानी का कारण बनता जा रहा है। इंटरनैशनल स्पेस स्टेशन जब इस इलाके से गुजरता है तो उसके कंप्यूटर सिस्टम पर क्रैश होने का खतरा पैदा हो जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि यहां हो क्या रहा है। हालांकि, यह बरमूडा की तरह अनसुलझी गुत्थी नहीं है और वैज्ञानिकों को इसके पीछे की वजह साफ-साफ पता है। चिंता की बात यह है कि यह खतरा बढ़ता जा रहा है और इसे कम करना इंसानों के हाथ में नहीं। हां, इसका सामना करने के लिए कोशिशें की जा रही हैं।
स्पेस में चल क्या रहा है?
दरअसल, धरती की मैग्नेटिक फील्ड दक्षिण अमेरिका और दक्षिण अटलांटिक महासागर के बीच कमजोर हो जाती है और इसका असर धरती पर नहीं दिखता लेकिन सैटलाइट्स को इससे गुजरना पड़ता है। यहां आते ही इनका संपर्क धरती से टूट जाता है और मानो ये गायब हो जाती हैं। इस इलाके को दक्षिण अटलांटिक अनोमली (SAA) कहते हैं। इसे स्पेस का बरमूडा ट्रायऐंगल कहते हैं लेकिन धरती की मैग्नेटिक फील्ड के कमजोर होने से सैटलाइट्स पर असर पड़ता क्यों है?
क्यों होता है खतरा?
मैग्नेटिक फील्ड धरती के सुरक्षा कवच की तरह काम करती है। यह सूरज से आने वाले खतरनाक और नुकसानदायक सोलर रेडिएशन को रोकती है। इस वजह से जहां मैग्नेटिक फील्ड कम होती है वहां सूरज की किरणें रुक नहीं पाती हैं। ये किरणें धरती की सतह के 124 मील करीब तक आ सकती हैं जहां लोअर अर्थ ऑर्बिट में प्रोब्स होते हैं। इनमें लगे उपकरणों को रेडिशन की वजह से नुकसान हो सकता है। इस खतरे को देखते हुए इंटरनैशनल स्पेस स्टेशन और उसमें रहने वाले ऐस्ट्रोनॉट्स को बचाने के कदम उठाए गए हैं।
बचने के लिए की गई तैयारी
ISS की गैलरी और स्लीपिंग क्वॉर्टर में शील्डिंग बढ़ाई गई है। यही नहीं, उन्हें डोसीमीटर भी पहनाए जाते हैं। यह ऐसी डिवाइस होती है जो उन पर पड़ने वाले रेडिएशन को नापती है और खतरनाक स्तर पर पहुंचने पर वॉर्निंग भी जारी करती है। हबल टेलिस्कोप जैसे उपकरणों में इस क्षेत्र से गुजरने पर रेडिएशन का जोखिम झेलने वाले ऑपरेशन्स को बंद कर सेफ मोड में कर दिया जाता है। रेडिएशन से होने वाला नुकसान काफी महंगा भी पड़ सकता है जैसा जापान की हिटोमी सैटलाइट के साथ हुआ था जो क्रैश हो गई थी। इस क्षेत्र से गुजरने पर संपर्क टूट जाता है और इस वजह से सिस्टम में आई खराबी को ठीक नहीं किया जा सका था और सैटलाइट से हाथ धोना पड़ा था।
बढ़ता जा रहा यह क्षेत्र
चिंता की बात यह है कि यह क्षेत्र फैलता जा रहा है और पश्चिम की ओर बढ़ रहा है। माना जा रहा है कि आने वाले पांच साल में यह 2019 की तुलना में 10% ज्यादा फैल चुका होगा। पिछले कुछ सालों से विशेषज्ञों के रेडार पर चुंबकीय क्षेत्र में आई कमी थी। पिछले 200 सालों में चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता में 9 प्रतिशत की कमी आई है। इस बीच अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के बीच काफी बड़े हिस्से में हाल ही में चुंबकीय क्षेत्र में ज्यादा कमी आई है। वैज्ञानिकों ने कहा कि ध्रुवों में बदलाव अचानक से नहीं हो जाता है और यह धीरे-धीरे होता है। यह बदलाव हरेक 2,50,000 साल में होता है।
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