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जनता से रिश्ता वेबडेस्क: शरीर में मौजूद कैंसर ट्यूमर की वजह से शरीर से अलग तरह का केमिकल निकलता है. वोलाटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड कहलाने वाला ये रसायन पसीने और पेशाब के साथ बाहर निकलता है. अब चींटियां इसी केमिकल को सूंघकर पहचान लेंगी और किसी बड़ी जांच से पहले ही पता लग सकेगा कि किसी को कैंसर है, या नहीं. यूरोप और दक्षिण एशिया में बहुतायत में मिलने वाली फॉर्मिका फ्यूस्का चींटियों के इस्तेमाल से हुए अध्ययन को अहम बायोमार्कर माना जा रहा है, जो बिना किसी खर्च और शरीर में जख्म के कैंसर की काफी हद तक पहचान कर सकी.
बेहद तेज नाक वाले कुत्तों को लंबे समय से ट्रेनिंग मिल रही है कि वे इंसानों में कैंसर की पहचान कर सकें. ज्यादातर मामलों में जब तक पहचान होती है, बीमारी काफी एडवांस हो चुकी होती है. ऐसे में एक्सपर्ट इसके आसान तरीके खोज रहे हैं ताकि शुरुआती अवस्था में ही सिग्नल मिल जाए. फ्रेंच नेशनल सेंटर फॉर साइंटिफिक रिसर्च ने कुछ दिन पहले ही अपनी इस स्टडी पर बात करते हुए कहा कि चींटिया इस मामले में डॉग्स से बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं. अध्ययन प्रोसिडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसायटी में छपा.
कम खर्च पर और बिना शरीर में किसी चीरफाड़ के कैंसर सेल्स का पता लगा सकने पर वैज्ञानिक खूब बात करते रहे. इसे लिक्विड बायोप्सी कहते हैं. ऑन्कोलॉजिस्ट लगभग दशकभर से इस तरह के बायोप्सी मैथड की तलाश में थे, जिससे खून या पसीने जैसे बॉडी फ्लूइड से कैंसर का पता लग जाए. अब तक बाकी जांचों के साथ-साथ बायोप्सी होती आई है. इसमें प्रभावित अंग का बहुत छोटा-सा हिस्सा लेकर उसकी सेल्स का टेस्ट होता है कि क्या उसमें कैंसर उपस्थित है.
स्टडी के लिए वैज्ञानिकों ने ह्यूमन ब्रेस्ट कैंसर की सेल्स लेकर चूहों में ट्रांसप्लांट कर दिया और उन्हें बढ़ने दिया. इस तकनीक को जीनोग्राफ्टिंग कहते हैं. इन चूहों के पेशाब समेत हेल्दी चूहों के यूरिन सैंपल लेकर उन्हें चींटियों के सामने रखा गया. साथ में एक रिवॉर्ड सिस्टम भी था, जिसके लिए ये चींटियां पहले से ही ट्रेन्ड थीं. इसमें दिखा कि चींटियों ने कैंसरस सेल्स वाले सैंपल को तुरंत पहचान लिया.
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार कैंसर दुनिया में हो रही मौतों का दूसरा सबसे बड़ा कारण है. साल 2018 में हर 6 में से 1 मौत की वजह किसी न किसी तरह का कैंसर था. ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन का मानना है कि कैंसर की पहचान से लेकर इसका इलाज शुरू करने में हर एक महीने की देर भी डेथ रिस्क को लगभग 10% तक बढ़ा देती है. ऐसे में समय पर कैंसर की पहचान हो सकना जान बचाने में काफी मददगार हो सकेगा. यही वजह है कि साइंटिस्ट लिक्विड बायोप्सी को लेकर काफी उम्मीद कर रहे हैं.
चींटियों पर कैंसर को लेकर पहले भी एक्सपेरिमेंट होते रहे. जैसे कुछ साल पहले एक अध्ययन में दावा किया गया था कि चींटियों में पाया जाने वाला एक केमिकल कैंसर की दवा का असर 50 गुना तक बढ़ा देता है. यह केमिकल 'बिच्छू घास' नाम के पौधे में भी पाया जाता है.
साइंस रिसर्च मैगजीन 'नेचर कम्युनिकेशंस' में छपी स्टडी में कहा गया कि चींटियों या बिच्छू घास में पाए जाने वाले केमिकल 'सोडियम फॉस्फेट' को कैंसर के उपचार में शामिल करने से दवा में कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को खत्म करने की क्षमता कई गुना बढ़ गई.
गर्भाशय में हुए कैंसर से ग्रस्त कोशिकाओं पर लैब में किए गए परीक्षण के दौरान जब कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवा JS07 का इस्तेमाल सोडियम फॉस्फेट के साथ किया गया तो इसका असर लगभग 50 गुना तक बढ़ गया.
Nilmani Pal
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