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दुर्गा पूजा के दौरान क्यों होती है सिंदूर खेला का रस्म...जानिए इसका महत्व
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| बंगाल समेत देश के सभी हिस्सों में दुर्गा पूजा का महोत्सव शुरू हो गया है. दुर्गा पूजा में मां दुर्गा की अराधना की जाती है. आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि से दुर्गा पूजा का शुभारंभ होता है और दशमी के दिन समापन होता है. दुर्गा पूजा 5 दिन षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी और दशमी तक मनाया जाता है. इस त्योहार को खास तौर पर बंगाल, ओड़िशा, त्रिपुरा, पूर्वी उत्तर प्रदेश समेत देश के अन्य भागों में मनाया जाता है. इसी दौरान दुर्गा बलिदान और सिंदूर खेला की रस्म भी निभाई जाती है. आइए जानते हैं इन रस्मों और इनके महत्व के बारे में
दुर्गा बलिदान
दुर्गा बलिदान की रस्म को नवमी के लिए पूरा किया जाता है. इसका संबंध पशु बलि से था लेकिन आज के दौर में लोग इसकी जगह सब्ज़ियों के साथ सांकेतिक बलि देकर इस रस्म की अदायगी करते हैं. नवरात्रि नवमी के दिन इस प्रथा का पालन पूरे विधि विधान के साथ किया जाता है
सिंदूर खेला
दुर्गा पूजा के इस पर्व में सिंदूर खेला की रस्म भी निभाई जाती है. जो मां की विदाई यानि मां की मूर्ति के विसर्जन से ठीक पहले होती है. इस रस्म को सिंदूर उत्सव भी कहा जाता है. खासतौर से ये उत्सव बंगाल में मनाया जाता है. इस उत्सव में सुहागिनें हिस्सा लेती हैं. शुरुआत मां दुर्गा को पान का पत्ता अर्पित करने से होती है. जिसके बाद मां की प्रतिमा को सिंदूर लगाया जाता है. और इस उत्सव की शुरुआत हो जाती है. महिलाएं एक दूसरे के गालों पर सिंदूर लगाकार ये खेल खेलती है और एक दूसरे को लंबे सुहाग की शुभकामनाएं भी देती हैं.
माना जाता है कि नवरात्रि में मां दुर्गा अपने मायके अपने माता-पिता के साथ पृथ्वी पर आती हैं. मां के आदर-सम्मान के लिए तमाम तरह के आयोजन और व्यंजन बनाए जाते हैं. नवरात्रि के बाद मां अपने घर वापस लौटती हैं इसलिए उनकी विदाई की जाती है. विदाई देने के लिए सिंदूर खेला का आयोजन होता है. देवी दुर्गा के चरणों और माथे पर सिंदूर लगाने के दौरान वे उनसे सुखी और लंबे वैवाहिक जीवन के लिए प्रार्थना की जाती है.