धर्म-अध्यात्म

प्रदोष व्रत क्यों शिव को समर्पित होता है, जानिए गुरु प्रदोष व्रत कथा

Bhumika Sahu
30 Nov 2021 6:41 AM GMT
प्रदोष व्रत क्यों शिव को समर्पित होता है, जानिए गुरु प्रदोष व्रत कथा
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प्रदोष व्रत त्रयोदशी तिथि को पड़ता है और महादेव को समर्पित होता है. इस बार ये व्रत 2 दिसंबर 2021 को गुरुवार के दिन रखा जाएगा. जानिए इस व्रत से जुड़ी वो जानकारी, जिससे आप अब तक अंजान हैं.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। एकादशी की तरह ही प्रदोष व्रत की भी काफी मान्यता है. ये व्रत हर महीने में दो बार आता है, शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में. ये व्रत त्रयोदशी तिथि को पड़ता है और महादेव को समर्पित होता है. मान्यता है कि ये व्रत करने से शिव जी बहुत प्रसन्न होते हैं और भक्त की हर मनोकामना को पूरा करते हैं. त्रयोदशी तिथि पर रहे जाने वाले इस व्रत में महादेव का पूजन प्रदोष काल में ही किया जाता है.

प्रदोष काल को लेकर वैसे तो क्षेत्र के हिसाब से कई तरह की मान्यताएं हैं, लेकिन सामान्यत: प्रदोष काल सूर्यास्त के डेढ़ घंटे बाद तक माना जाता है. इसी कारण इस व्रत को भी लोग प्रदोष व्रत के नाम से जानते हैं. इस बार ये व्रत दो दिसंबर को गुरुवार के दिन रखा जाएगा. इस मौके पर जानिए कि क्यों ये व्रत महादेव को समर्पित माना जाता है.
ये है मान्यता
पौराणिक मान्यता के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान जब हलाहल विष निकला, तो महादेव ने सृष्टि को बचाने के लिए उस भयंकर विष को पी लिया था. वो विष इतना ज्यादा असरकारी था कि उसे पीने के बाद महादेव का कंठ नीला पड़ गया था और विष के प्रभाव से उनके शरीर में असहनीय जलन होने लगी थी. तब देवताओं ने जल, बेलपत्र वगैरह से महादेव की जलन को कम किया था. चूंकि महादेव ने विष पीकर संसार को विष के प्रभाव से बचाया था, इसलिए सारा संसार और देवगण महादेव के ऋणी थे. उस समय सभी देवताओं ने महादेव की स्तुति की. इस स्तुति से महादेव अत्यंत प्रसन्न हुए और प्रसन्नता में उन्होंने भी तांडव किया. जिस समय ये घटना घटी थी, उस समय त्रयोदशी तिथि थी और प्रदोष काल था. तभी से ये तिथि और प्रदोष काल का समय महादेव को प्रिय हो गया. इसके साथ ही उनके भक्तों ने हर त्रयोदशी तिथि को प्रदोष काल में महादेव के पूजन की परंपरा शुरू कर दी. इस व्रत को प्रदोष व्रत के नाम से जाना जाने लगा.
गुरु प्रदोष के दिन पढ़ें ये कथा
सप्ताह के दिन के हिसाब से प्रदोष व्रत के अलग अलग नाम हैं. जब ये व्रत गुरुवार के दिन पड़ता है तो इसे गुरु प्रदोष के नाम से जाना जाता है. हर दिन के हिसाब से प्रदोष व्रत की कथा भी अलग अलग है. पौराणिक कथा के अनुसार एक बार इन्द्र और वृत्रासुर की सेना में घनघोर युद्ध हुआ. देवताओं ने दैत्य-सेना को पराजित कर डाला. ये देख वृत्रासुर अत्यन्त क्रोधित हुआ. आसुरी माया से उसने विकराल रूप धारण कर लिया. ये देख सभी देवता भयभीत हो गुरु बृहस्पति की शरण में पहुंचे. तब बृहस्पति महाराज बोले- पहले मैं तुम्हे वृत्रासुर का वास्तविक परिचय दे दूं. वृत्रासुर बड़ा तपस्वी और कर्मनिष्ठ है. उसने गन्धमादन पर्वत पर घोर तपस्या कर शिव जी को प्रसन्न किया.
पूर्व समय में वह राजा चित्ररथ था. एक बार वह अपने विमान से कैलाश पर्वत चला गया. वहां शिव जी के वाम अंग में माता पार्वती को विराजमान देखकर उसने उनका उपहास किया. चित्ररथ के वचन सुन माता पार्वती क्रोधित होकर माता पार्वती ने उसे राक्षस होने का शाप दे दिया. चित्ररथ राक्षस योनि को प्राप्त और त्वष्टा नामक ऋषि के श्रेष्ठ तप से उत्पन्न हो वृत्रासुर बना. गुरुदेव बृहस्पति आगे बोले- वृत्रासुर बाल्यकाल से ही शिवभक्त रहा है. इसलिए उसे परास्त करने के लिए भगवान शिव को प्रसन्न करना होगा. इसके लिए हे इन्द्र तुम बृहस्पति प्रदोष व्रत का व्रत करो. देवराज ने गुरुदेव की आज्ञा का पालन कर बृहस्पति प्रदोष व्रत किया. गुरु प्रदोष व्रत के प्रताप से इन्द्र ने शीघ्र ही वृत्रासुर पर विजय प्राप्त कर ली और देवलोक में शान्ति छा गई.


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