धर्म-अध्यात्म

सावन के महीने में क्यों की जाती है कांवड़ यात्रा, जानें इसका इतिहास

Triveni
25 July 2021 2:53 AM GMT
सावन के महीने में क्यों की जाती है कांवड़ यात्रा, जानें इसका इतिहास
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हिन्दू पंचांग के अनुसार सावन के महीने (Sawan Month) से ही व्रत और त्योहारों की शुरुआत हो जाती है.

हिन्दू पंचांग के अनुसार सावन के महीने (Sawan Month) से ही व्रत और त्योहारों की शुरुआत हो जाती है. इसी कड़ी में आज से सावन मास की शुरुआत हो चुकी है. हिन्दू धर्म में, श्रावण मास का विशेष महत्व बताया गया है. खासतौर से भगवान शिव (Lord Shiva) की आराधना और उनकी भक्ति के लिए कई हिन्दू ग्रंथों में भी, इस माह को विशेष महत्व दिया गया है. मान्यता है कि सावन माह अकेला ऐसा महीना होता है, जब शिव भक्त महादेव को खुश कर, बेहद आसानी से उनका आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं. हर साल सावन के महीने में लाखों की तादाद में कांवड़िये सुदूर स्थानों से आकर गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर पदयात्रा करके अपने घर वापस लौटते हैं. इस यात्रा को कांवड़ यात्रा (Kanwar Yatra) बोला जाता है.

सावन माह की चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में भगवान शिव का जलाभिषेक किया जाता है. कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं. कांवड़ के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी भगवान शिव की आराधना के लिए किया जाता है.
श्रावणी मेलों और कावड़ यात्रा का आयोजन
ये देखा गया है कि सावन माह की शुरुआत होते ही, देशभर से कांवड़ और झंडा यात्रा का शुभारंभ भी हो जाता है. हर साल सावन पर देशभर में कई प्रसिद्ध श्रावणी मेलों और कांवड़ यात्रा का आयोजन किया जाता है. हर वर्ष इस मास की शुरुआत होते ही कोने-कोने से सैकड़ों शिव भक्त आस्था और उत्साह पूर्वक कांवड़ यात्राएं निकालते हैं. भारत में कांवड़ यात्रा वर्षों पुरानी एक विशेष धार्मिक परंपरा है, जो हर साल हर्षोउल्लास के साथ मनाई जाती है. इस दौरान भगवान शिव के भक्त, जिन्हे कांवडि़ए कहा गया है, वो मां गंगा और नर्मदा के तट से अपनी कांवड़ में पवित्र जल भरते हैं, और फिर बाद में उसी पवित्र जल से शिवालयों के शिवलिंग का जलाभिषेक करते हुए, महादेव को प्रसन्न करते हैं. हालांकि कोरोना के चलते कई जगहों पर कांवड़ यात्रा पर रोक लगाई गई है.
कांवड़ यात्रा का इतिहास
कोरोना के चलते शिव भक्त घर में मौजूद गंगा जल से ही भगवान शिव का जलाभिषेक कर सकते हैं. कोरोना की वजह से घर में भी पूजा की जा सकती है और घर के आसपास मौजूद मंदिर में भी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए पूजा की जा सकती है. क्या आप कांवड़ यात्रा के इतिहास के बारे में जानते हैं. क्या आपको पता है कि सबसे पहले कावड़िया कौन थे. आइए आपको बताते हैं इसके बारे में.
परशुराम गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लाए थे
कुछ विद्वानों का मानना है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित 'पुरा महादेव' का कांवड़ से गंगाजल लाकर जलाभिषेक किया था. परशुराम इस प्रचीन शिवलिंग का जलाभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लाए थे. आज भी इस परंपरा का पालन करते हुए सावन के महीने में गढ़मुक्तेश्वर से जल लाकर लाखों लोग 'पुरा महादेव' का जलाभिषेक करते हैं. गढ़मुक्तेश्वर का वर्तमान नाम ब्रजघाट है.
श्रवण कुमार माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार लाए
वहीं कुछ लोगों का कहना है कि सर्वप्रथम त्रेतायुग में श्रवण कुमार ने पहली बार कावड़ यात्रा की थी. कहते हैं कि माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने के क्रम में श्रवण कुमार हिमाचल के ऊना क्षेत्र में थे जहां उनके अंधे माता-पिता ने उनसे मायापुरी यानि हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा प्रकट की. माता-पिता की इस इच्छा को पूरी करने के लिए श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कांवड़ में बैठा कर हरिद्वार लाए और उन्हें गंगा स्नान कराया. वापसी में वे अपने साथ गंगाजल भी ले गए. इसे ही कांवड़ यात्रा की शुरुआत माना जाता है.
श्रीराम ने बाबाधाम में जलाभिषेक किया
मान्यताओं के अनुसार भगवान राम पहले कांवड़िया थे. उन्होंने बिहार के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल भरकर, बाबाधाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था.
कांवड़ में जल भरकर रावण ने किया जलाभिषेक
वहीं पुराणों के अनुसार कांवड़ यात्रा की परंपरा, समुद्र मंथन से जुड़ी है. समुद्र मंथन से निकले विष को पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया था और वे नीलकंठ कहलाए लेकिन विष के नकारात्मक प्रभावों ने शिव को घेर लिया. शिव को विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त कराने के लिए उनके अनन्य भक्त रावण ने ध्यान किया. तत्पश्चात कांवड़ में जल भरकर रावण ने 'पुरा महादेव' स्थित शिवमंदिर में भगवान शिव का जलाभिषेक किया. इससे शिवजी विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए और यहीं से कांवड़ यात्रा की परंपरा की शुरुआत हुई.


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