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धर्म अध्यात्म: भगवान श्रीराम जी के प्रिय साधक कितने बड़े गुणी व ज्ञानी होते हैं, यह वीर अंगद के एक-एक शब्द से देखा जा सकता है। रावण का बोलना मानों ऊँट की भाँति बोलना है, और वीर अंगद का भाषण निश्चित ही कोयल की भाँति सुरीला व उत्तम है। रावण का बोलना ऊँट की भाँति इसलिए है, क्योंकि ऊँट जब भी बोलता है, तो उसके मुख से गंदी झाग ही निकलती है। उसका बोलना, कोई बोलना न होकर, मानों होठों का मात्र फड़फड़ाना ही होता है। जो किसके भी हृदय को नहीं भाता। इसके विपरीत, वीर अंगद का बोलना कोयल की भाँति इसलिए है, क्योंकि वीर अंगद जब भी कुछ बोल रहे हैं, तो उनके शब्द रावण को भले ही कड़वे लगें, लेकिन अन्य सभी सभासदों को, वे स्वर कोयल की भाँति ही मीठे प्रतीत हो रहे हैं। कारण कि कोयला कभी भी, किसी भी समय बोले, वह मीठे स्वर में ही बोलती है।
वीर अंगद अभी जो रावण को उपदेश देने जा रहे हैं, वह मानो उनके सांसारिक ज्ञान की पराकाष्ठा है। तभी तो वे कह रहे हैं, कि हे दुष्ट रावण! मारने को तो मैं तुम्हें कब का मार डालूं। लेकिन मैंने देखा है, कि संसार में चौदह जनों को मारने का कोई लाभ नहीं। कारण कि महापुरुष उन्हें पहले ही मरा हुआ मानते हैं। क्या तुम जानते हो कि वे चौदह जन कौन-कौन होते हैं? नहीं जानते न? चलो हम तुम्हारे ज्ञान में वृद्धि करे देते हैं-
‘कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा।
अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा।।
सदा रोगबस संतत क्रोधी।
बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी।।
तनु पोषक निंदक अघ खानी।
जीवत सव सम चौदह प्रानी।।’
वीर अंगद ने सर्वप्रथम जो नाम लिया, वह था ‘वाममार्गी’। संसार में अध्यात्म में भी भी लोगों ने दो मार्ग निर्धारित कर लिए हैं। पहला ‘दक्षिण मार्गी’ और दूसरा ‘वाममार्गी’। वीर अंगद कहते हैं, कि वाममार्गी को भी मरा हुआ ही जानना चाहिए। वीर अंगद ने वाममार्गी को मरा हुआ इसलिए कहा, क्योंकि वाममार्गी होते तो आध्यात्मवादी ही हैं। लेकिन उनके मार्ग में विषयों से अनासक्ति पर कोई बल ही नहीं होता। वे अपने मतानुसार भगवान की भक्ति भी कर रहे होते हैं, और साथ-साथ विषयों का सेवन भी उनके लिए निंदनीय नहीं होता। जबकि शास्त्रें में कहा गया है, कि योग और भोग का स्थान एक साथ किसी प्रकार से नहीं हो सकता है। क्या राम और काम को कभी भी एक तराजू में तौला जा सकता है? जैसे खाँसी के रोगी को दवा और तला-भुना एक साथ नहीं दिया जा सकता है। ठीक वैसे ही योग और भोग को एक साथ नहीं रखा जा सकता है। लेकिन जो भी जन इस सनातन पद्यति का उल्लंघन करता है, तो मानो वह मरा हुआ ही है। रावण में यह गुण कूट-कूट कर भरा हुआ था। वह कहने को तो भगवान शंकर का अनन्य भक्त कहला रहा था, लेनिक साथ में परस्त्री का अपहरण भी उसके लिए, उचित व श्रेष्ठ कार्य की ही श्रेणी में आता था। इसीलिए वीर अंगद ने चौदह मरे हुए लोगों में से पहला नाम वाममार्गी का ही लिया।
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दूसरा नाम जो वीर अंगद लेते हैं, वह है ‘कामी’। जगत में अगर कोई कामी व्यक्ति है, तो उसे भी हमें मरा हुआ ही मानना चाहिए। यहाँ जिज्ञासुओं के हृदय में एक प्रश्न उत्पन्न हो सकता है, अगर मात्र कामी होने से ही किसी को मरा हुआ समझ लेना चाहिए, तो ऐसे तो संसार में सभी व्यक्तियों में काम का अंश स्वाभाविक रूप से ही विद्यामान है। तो क्या जगत में सभी व्यक्तियों को मरा हुआ ही मान लेना चाहिए? वीर अंगद का यह विचार कुछ मतभेद से पैदा करता हुआ प्रतीत हो रहा है।
सज्जनों इसमें रत्ती भर भी मतभेद नहीं है। कारण कि जीव में काम का होना तो स्वाभाविक गुण है। प्रभु ने यह गुण जीव में स्थापित किया है, तो निश्चित ही यह गुणकारी व लाभप्रद ही होगा। लेकिन कब? जब काम को मर्यादा के बाँध में संयमित रख कर प्रयोग में लाया जाये। जैसे नदी का पानी जब दो किनारों की मर्यादा में बँध कर बहता है, तो उससे खेतों की सिंचाई, नहाना, पीने के लिए पानी उपलब्ध होना जैसे, अनेकों लाभ लिए जा सकते हैं। लेकिन वही पानी जब अपने किनारों की मर्यादा को तोड़ कर, बाहर बहने लगे, तो वही नदी का पानी बाढ़ का रुप धारण कर, चारों ओर विध्वंस का रुप धारण कर लेता है। उस उग्र व मर्यादा विध्वंसक नदी के पानी से कितनी हानि व कोहराम मचता है, इसका अनुमान आप लगा ही सकते हैं।
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Manish Sahu
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