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धर्म-अध्यात्म
भगवान शिव का अपमान देखकर सती ने जो किया वह आज भी दिव्य प्रेम का महान आदर्श है
Manish Sahu
25 July 2023 10:01 AM GMT

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धर्म अध्यात्म: भगवान शंकर के समझाने पर भी सतीजी नहीं मानीं और आंखों में आंसू भरकर रोने लगीं। इसके बाद भगवान शिव ने अपने प्रमुख गणों के साथ उन्हें विदा कर दिया। दक्षयज्ञ में पहुंचने पर वहां सती को भगवान शिव का कोई भाग नहीं दिखाई दिया।
सती के पिता महाराज दक्ष को ब्रह्माजी ने प्रजापति नायक के पद पर अभिषिक्त किया। महान अधिकार मिलने से दक्ष के मन में बड़ा अहंकार उत्पन्न हो गया। संसार में ऐसा कौन है, जिसे प्रभुता पाकर मद न हो। एक बार ब्रह्माजी की सभा में बड़े-बड़े ऋषि, देवता और मुनि उपस्थित हुए। उस सभा में भगवान शंकर भी विराजमान थे। उसी समय दक्ष प्रजापति भी वहां पधारे। उनके स्वागत में सभी सभापति उठकर खड़े हो गये। केवल ब्रह्माजी और भगवान शंकर अपने स्थान पर बैठे रहे। दक्ष ने ब्रह्माजी को प्रणाम किया लेकिन भगवान शंकर का बैठे रहना उन्हें नागवार गुजरा। उन्हें इस बात से विशेष कष्ट हुआ कि ब्रह्माजी तो चलो उनके पिता थे लेकिन शंकर जी तो दामाद थे। उन्होंने उठकर उन्हें प्रणाम क्यों नहीं किया। अतः उन्होंने भरी सभा में भगवान शंकर की निंदा की और उन्हें शाप तक दे डाला। फिर भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ और उन्होंने भगवान शिव को अपमानित करने के उद्देश्य से एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें शिवजी से वैर बुद्धि के कारण अपनी पुत्री सती को भी नहीं बुलाया।
आकाश मार्ग से विमान में बैठकर सभी देवताओं, विद्याधरों और किन्नरियों को जाते हुए देखकर सती ने भगवान शिव से पूछा- भगवन ये लोग कहां जा रहे हैं? भगवान शिव ने कहा कि तुम्हारे पिता ने बड़े यज्ञ का आयोजन किया है। ये सभी लोग उसी में सम्मिलित होने जा रहे हैं। सतीजी बोलीं, प्रभो पिताजी के यहां यज्ञ हो रहा है तो उसमें मेरी अन्य बहनें भी अवश्य पधारेंगी। माता पिता से मिले हुए मुझे बहुत समय बीत गया। यदि आपकी आज्ञा हो तो हम दोनों को भी वहां चलना चाहिए। यह ठीक है कि उन्होंने हमें निमंत्रण नहीं दिया है किंतु माता पिता और गुरु के घर बिना बुलाये जाने में कोई हर्ज नहीं है।
शिवजी बोले- इसमें संदेह नहीं कि माता पिता और गुरुजनों आदि के यहां बिना बुलाये भी जाया जा सकता है, परंतु जहां कोई विरोध मानता हो, वहां जाने से कदापि कल्याण नहीं होता। इसलिए तुम्हें वहां जाने का विचार त्याग देना चाहिए।
भगवान शंकर के समझाने पर भी सतीजी नहीं मानीं और आंखों में आंसू भरकर रोने लगीं। इसके बाद भगवान शिव ने अपने प्रमुख गणों के साथ उन्हें विदा कर दिया। दक्षयज्ञ में पहुंचने पर वहां सती को भगवान शिव का कोई भाग नहीं दिखाई दिया। दक्ष ने भी सती का कोई सत्कार नहीं किया। उनकी बहनों ने भी उन्हें देखकर व्यंग्यपूर्वक मुस्कुरा दिया। केवल उनकी माता बड़े प्रेम से मिलीं। भगवान शिव का अपमान देखकर सती को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने दक्ष से कहा, पिताजी जिन भगवान शिव का दो अक्षरों का नाम बातचीत के प्रसंग में अनायास आ जाने पर भी नाम लेने वाले के समस्त पापों का विनाश कर देता है, आप उन्हीं भगवान शिव से द्वेष करते हैं। अतः आपके अंग के संसर्ग से उत्पन्न इस शरीर को मैं तत्काल त्याग दूंगी, क्योंकि यह मेरे लिये कलंक रूप है। ऐसा कहकर सती ने भगवान शिव का ध्यान करते हुए अपने शरीर को योग अग्नि में भस्म कर दिया। सती का यह दिव्य पति प्रेम आज भी महान आदर्श है।
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