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धर्म-अध्यात्म
मां की कोख में किस तरह का कष्ट झेलता है शिशु, गरुड़ पुराण में है इसकी जानकारी
Mahima Marko
8 July 2021 6:24 AM GMT
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जनता से रिश्ता वेबडेस्क| जीवन और मृत्यु का क्रम तब तक चलता रहता है जब तक जीवात्मा को मोक्ष नहीं मिल जाता. बच्चे के गर्भ में होने से लेकर जन्म होने तक मां के कष्ट सहने को लेकर हम बचपन से सुनते आए हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि मां के गर्भ में एक शिशु को भी काफी कष्ट सहने पड़ते हैं. माता के गर्भ से बाहर आने के बाद जैसे ही मृत्युलोक की वायु का स्पर्श होता है, जीव पूर्व जन्म की सारी बातों को भूल जाता है और माया के बंधन में फंस जाता है. गरुड़ पुराण में गर्भस्थ शिशु के कष्टों का जिक्र किया गया है. यहां जानिए इसके बारे में.
गरुड़ पुराण के मुताबिक जब जीव मां के गर्भ में प्रवेश करता है तब वो बहुत सूक्ष्म रूप में होता है. 10 दिनों के बाद बेर के समान हो जाता है और उसके बाद अंडे का आकार ले लेता है. इसे बाद भ्रूण के मस्तिष्क का विकास शुरू होता है. दूसरे महीने में भ्रूण की भुजा का निर्माण होता है और तीसरे महीने में हड्डी, नाखून, त्वचा, रोम, लिंग और दसद्वार के छिद्र का निर्माण होता है. चौथे महीने में त्वचा, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा और अस्थि तैयार होती है, पांचवे महीने में क्षुधा और तृषा उत्पन्न होती है और छठे महीने में भ्रूण गर्भ के भीतर भ्रमण करने लगता है और मां के आहार से तेजी से विकसित होने लगता है.
इस समय में बच्चा मां के गर्भ में मल मूत्र और अन्य तरह के सूक्ष्म जीवों के साथ रहता है और शयन करता है. उस समय शिशु सूक्ष्म जीवों से परेशान होता है और बार बार बेहोश भी होता है. मां अगर तीखा, कसैला या तेज नमकदार भोजन खाती है तो शिशु की नाजुक त्वचा को उससे कष्ट होता है. उसके पैर ऊपर और सिर नीचे होता है. इस अवस्था में वो ज्यादा हिल डुल नहीं पाता और लगातार कष्ट सहता है. ऐसे में शिशु परमेश्वर का नाम जपकर उनसे अपने पापों की क्षमा मांगता है और अपने चरणों में विलीन होने की प्रार्थना करता है. लेकिन जैसे ही वो जन्म लेकर मृत्युलोक की वायु को स्पर्श करता है, वो सब कुछ फिर से भूल जाता है और माया चक्र में उलझकर रह जाता है.
(यहां दी गई जानकारियां धार्मिक आस्था और लोक मान्यताओं पर आधारित हैं, इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है. इसे सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर यहां प्रस्तुत किया गया है.)
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