धर्म-अध्यात्म

धर्म क्या है, इस संबंध में क्या कहती है गीता और कौन होता है, धार्मिक

Neha Dani
14 July 2023 3:20 PM GMT
धर्म क्या है, इस संबंध में क्या कहती है गीता और कौन होता है, धार्मिक
x
धर्म अध्यात्म: हर सार्वजनिक चर्चा में धर्म नाम जरूर आता है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या हम धर्म का सही अर्थ ले रहे हैं और इसको जानते हैं या कुछ बोलने के लिए ही बोल दे रहे हैं। आइये विद्वानों और गीता के अनुसार जानें कि धर्म क्या है.. धर्म क्या है, क्या कहती है गीता विद्वानों के अनुसार कई लोग अंग्रेजी में धर्म का अनुवाद रिलीजन और उर्दू में मजहब से करते हैं, लेकिन भारतीय धर्मवेत्ता इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि मजहब एक तरह से संप्रदाय है, और रिलीजन का समानार्थी विश्वास, आस्था या मत (विशिष्ट विचार या किसी विषय पर विचार) हो सकता है, लेकिन धर्म नहीं। ऐसे विद्वानों का कहना है कि धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है, इसकी व्याख्या की जाती है कि धारयति इति धर्मः अर्थात् जो चीज धारण करने योग्य है वह धर्म है। इसके एक परिभाषा दी जाती है कि यतोSभ्यदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः यानी धर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है जिसमें लौकिक उन्नति (अविद्या) और आध्यात्मिक परमगति (विद्या) दोनों की प्राप्ति होती है।
भारतीय ग्रंथों में सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, क्षमा आदि को धारण करने योग्य बताया गया है। कुछ लोग धर्म के नियमों के पालन को ही धर्म का धारण करना बताते हैं जैसे संध्या वंदन, सावन व्रत, ईश्वर प्राणिधान आदि आदि लेकिन विद्वान इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि यदि आप सत्य के मार्ग पर नहीं चलते तो ये सभी कार्य बेकार हैं और सत्य को जानने से ही अहिंसा, अस्तेय आदि को भी जाना जा सकता है। इसलिए सत्य ही धर्म है और धर्म ही सत्य है। जो संप्रदाय, रिलीजन, मजहब और विश्वास सत्य को छोड़कर दूसरे रास्ते पर चल रहे हैं, वो सभी अधर्म हैं। इसलिए हिंदुत्व में सत्यं शिवम् सुंदरम् का कॉन्सेप्ट है। मनु ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं धृतिः क्षमा दमोSस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणं।।
(धैर्य, क्षमा, वासनाओं पर नियंत्रण, चोरी न करना, आंतरिक और बाहरी पवित्रता, इंद्रियों को वश में रखना, बुद्धिमत्ता का प्रयोग, अधिक से अधिक ज्ञान की चाहत, मन वचन और कर्म से सत्य का पालन, क्रोध न करना ये दस लक्षण बताए गए हैं।) वहीं कुछ विद्वानों का कहना है कि धर्म एक रहस्य है, संवेदना है, संवाद है, धर्म मूल स्वभाव की खोज और आत्मा की खोज है। धर्म से ध्वनित होता है कुछ ऐसा है जिसे जानना जरूरी है, धर्म अनंत और अज्ञात में छलांग लगाना है। धर्म है जन्म, मृत्यु और जीवन को जानना। हिंदू संप्रदाय में धर्म को जीवन को धारण करने, समझने और परिष्कृत करने की विधि बताया गया है। धर्म को परिभाषित करना ईश्वर को परिभाषित करने जैसा कठिन है। कुल मिलाकर वैदिक ऋषियों के मुताबिक सृष्टि और स्वयं के हित व विकास के लिए किया गया हर कर्म धर्म है। यह भी कह सकते हैं शाश्वत जीव का शाश्वत कर्म ही धर्म है।
स्वामी नरसिम्हानंद के अनुसार क्या है धर्म स्वामी नरहिम्हानंद के अनुसार धर्म 'धृ' से बना है, जिसका अर्थ है धारण करना, पास रखना, या संचालन करना। इसलिए जो धारण करता है, पास रखता है या संचालन करता है वही धर्म है। यह ब्रह्मांड की व्यवस्था को बनाए रखता है। इस संदर्भ में धर्म का अर्थ ब्रह्मांड में संतुलन बनाए रखने वाले चक्रीय गतिविधियों का सही संचालन है। स्वामी नरसिम्हानंद के अनुसार धर्म का अर्थ नैतिकता भी है, क्योंकि यह हमें सत्य के निकट ले जाता है, जिस सत्य से ब्रह्माण्ड की व्यवस्था बनी रहती है, इसे ऋतः भी कहते हैं। एक व्यक्ति के लिए स्व-धर्म उसका अपना धर्म है जिसे उसने स्वयं चुना है या उसके सामाजिक स्थान के कारण उसे करना है। स्वामी नरसिम्हानंद के अनुसार धर्म का अर्थ लोगों की आस्था और परंपरा भी होती है। क्योंकि ऋषि-मुनियों के ध्यान और सिद्धियों से इन परंपराओं को मजबूती मिली है। ये परंपराएं शाश्वत हैं इसलिए इसे सनातन धर्म भी कहा जाता है। धर्म अंग्रेजी के शब्द ‘रिलीजन’ का समानार्थक नहीं है। रिलीजन का अर्थ विश्वास से बंधा हुआ एक समूह है। इसका एक और अर्थ गुण, विशेषता और प्रकृति है। अगर कोई कहता है कि तरलता पानी का धर्म है इसका अर्थ है कि तरलता पानी का गुण है। धर्म किसी वस्तु या व्यक्ति की अंतर्निहित प्रकृति भी हो सकती है। उदाहरण के लिए जलना आग का धर्म है। कुल मिलाकर धर्म एक व्यवहार का विषय है। उपनिषदों में धर्म के मार्ग पर चलने और हमेशा सच बोलने के लिए प्रेरित किया जाता है और इस संदर्भ में ही इस शब्द का मुख्य अर्थ माना जाना चाहिए। धर्म का अर्थ सच्चाई और अन्य समान सदाचारों के अभ्यास के जरिए सौहार्द्र फैलाना है।
मद्भगवत् गीता के अनुसार धर्म गीता के अनुसार तुम्हें जो चाहिए वो क्या है, उसकी प्राप्ति में पूरा ज्ञान लगा देना ही धर्म है। जीने का ढंग सिखाने वाली भगवान की वाणी गीता स्वधर्म की बात करती है, जो हर परिस्थिति और व्यक्ति के लिए अलग-अलग है। यदि अर्जुन के लिए क्षत्रिय कर्म करते हुए निष्काम भाव से युद्ध करना धर्म है तो भीष्म वचन से बंधे हुए अपने कर्तव्य का पालन ही धर्म समझते हैं। योगी सद्गुरु ने भी गीता के अनुसार बताया है कि कर्म परिस्थितियों पर निर्भर करता है और यह धर्म का आधार है।
महाभारत वनपर्व 208.9 में कहा गया है कि स्वकर्मनिरस्तो यस्तु धर्मः स इति निश्चयः यानी अपने कर्म लगे रहना निश्चय ही धर्म है। रामानुजाचार्य के अनुसार सम्पूर्ण गीता का यह चरम श्लोक है। धर्म शब्द हिन्दू संस्कृति का हृदय है। उनके अनुसार किसी तत्व के दो धर्म है, पहला मुख्य धर्म, दूसरा गौण धर्म। अग्नि की ज्वाला का वर्ण या आकार अग्नि का गौण धर्म है? जबकि उष्णता इसका मुख्य धर्म है। किसी पदार्थ का मुख्य धर्म ही उसका धर्म होता है। इस तरह मन और बुद्धि की अवस्थाएं और क्षमताएं ये सब मनुष्य के गौण धर्म ही है जबकि उसका वास्तविक धर्म चैतन्य स्वरूप आत्मतत्त्व है। यही आत्मा समस्त उपाधियों को सत्ता और चेतनता प्रदान करता है। इस आत्मा के बिना मनुष्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। इसलिए मनुष्य का वास्तविक धर्म सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा है।
भगवत गीता के श्लोकों के आधार पर धर्म की व्याख्या करते हुए रामानुजाचार्य कहते हैं कि नैतिकता, सदाचार, जीवन के समस्त कर्तव्य, श्रद्धा, दान, विश्व कल्याण की इच्छा इन सब को सूचित करने के लिए भी धर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है, तथापि मुख्य धर्म की उपयुक्त परिभाषा को समझ लेने पर इन दोनों का भेद स्पष्ट हो जाता है। सदाचार आदि को भी धर्म कहने का अभिप्राय यह है कि उनका पालन हमें अपने शुद्ध धर्म का बोध कराने में सहायक होता है। उसी प्रकार सदाचार के माध्यम से ही मनुष्य का शुद्ध स्वरूप अभिव्यक्त होता है। इसलिए हमारे धर्मशास्त्रों में ऐसे सभी शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक कर्मों को धर्म की संज्ञा दी गई है जो आत्मसाक्षात्कार में सहायक होते हैं।
Next Story