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धर्म-अध्यात्म
अपनी पत्नी की बातें सुन कर रावण के मन में क्या भाव आ रहे थे
Manish Sahu
30 Sep 2023 11:26 AM GMT
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धर्म अध्यात्म: रावण की सभा में उसका इतना अपमान हुआ है, कि इतना अपमान किसी अन्य साधारण व्यक्ति के साथ हो जाये, तो वह अपना शरीर का ही त्याग कर दे। लेकिन रावण है, कि उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा-
‘साँझ जानि दसकंधर श्रवन गयउ बिलखाइ।
मंदोदरीं रावनहिं बहुरि कहा समुझाइ।।’
वीर अंगद रावण के वैभव व कीर्ति की मिट्टी पलीत कर, वापिस श्रीराम जी की ओर चल दिए थे। अब इस घमासान में सायं तो हो ही गई थी। सभा के विसर्जन का भी समय हो चला था। रावण शायद आज प्रथम बार उदास हो रहा था। वह अपने महल में जाकर इन्हीं उदासी की गुफाओं में समा गया। यह देख रानी मंदोदरी ने रावण को फिर से समझाने का प्रयास किया। रानी बोली कि हे कान्त! मन में समझकर कुबुद्धि को छोड़ दो। आप में और श्री रघुनाथ में युद्ध शोभा नहीं देता। उनके भाई ने एक छोटी-सी रेखा खींच दी थी, उसे भी आप नहीं लाँघ पाये, ऐसा तो आपका पुरुषत्व है। हे प्रियतम! आप उन्हें संग्राम में जीत पायेंगे, जिनके दूत का ऐसा काम है? खेल-खेल में ही समुद्र लाँघकर श्रीहनुमान जी वानरों में सिंह की भाँति आपकी लंका में आये भी, और आकर निर्भीक होकर चले भी गये। उन्होंने रखवारों को मारकर अशोक वन उजाड़ डाला। आपके देखते-देखते उन्होंने आपके पुत्र अक्षय कुमार को भी मार डाला। साथ ही उन्होंने संपूर्ण नगर को भी जला डाला। उस समय आपके बल का गर्व कहाँ चला गया था? अब हे स्वामी! झूठ गाल ना मारिए। मेरे कहने पर हृदय में कुछ विचार कीजिए। हे पतिदेव! आप श्री रघुपति को मात्र एक साधारण राजा मत समझिए, बल्कि अग-जगनाथ और अतुलनीय बलवान जानिए।
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रावण अपनी पत्नी के मुख से ऐसी-ऐसी बातें सुन रहा था, कि अगर वह आज उदासी में न होता, तो निश्चित ही रानी मंदोदरी को दण्डित कर देता। रानी मंदोदरी अनेकों प्रकार से रावण को समझा रही है। वह तो यह भी कहती हैं, कि श्रीराम जी के बाणों का प्रताप तो मारीच जानता था। कारण कि उसे श्रीराम जी ने एक बार बिना फल वाला बाण मारा था, तो वह कहाँ का कहाँ जाकर गिरा था।
रानी मंदोदरी के कहने का तात्पर्य था, कि ऐसा नहीं कि श्रीराम जी का बाण आपकी ओर न सधा हो। श्रीराम जी के बाण ने ही तो इससे पहले आपके मुकुट को नीचे गिराया था। साथ ही में मेरे कर्ण-कुण्डल काट डाले थे। लेकिन आपने उनके बाण का महत्व नहीं समझा। आपको श्रीसीता जी को पाने की इतनी ही धुन थी, तो राजा जनक की सभा मे अनगिनत राजाओं के साथ आप भी तो थे? वहीं श्रीराम जी ने भगवान शंकर का धनुष तोड़़ कर, श्रीसीता जी को जीत लिया था। आप ने उस समय ही श्रीराम जी को संग्राम में जीत कर, श्रीसीता जी को क्यों नहीं पा लिया? सूर्पनखा की दशा तो आपने देख ही ली। तो भी आपके हृदय में लज्जा नहीं आई?
वे श्रीराम, जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े। उन सूर्यकुल के ध्वजस्वरूप करुणामय भगवान ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा। जिसने बीच सभा मे आकर आपके बल को उसी प्रकार मथ डाला, जैसे हाथियों के झुण्ड में आकर सिंह उसे छिन्न-भिन्न कर डालता है। जिनके सेवक ऐसे महान योद्धा श्रीहनुमान जी एवं वीर अंगद हैं। हे पति! उन्हें आप बार-बार मनुष्य कहते हैं। आप व्यर्थ ही मान, ममता और मद का बोझ ढो रहे हैं। हा प्रियतम! आपने श्रीराम जी से विरोध कर लिया और काल के विशेष वश होने से आपके मन में अब भी ज्ञान नहीं उत्पन्न होता-
‘काल दंड गहि काहु न मारा।
हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा।।
निकट काल जेहि आवत साईं।
तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं।।’
रानी फिर से रावण को समझाती है, कि काल लाठी लेकर किसी को नहीं मारता। वह धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हर लेता है। हे स्वामी! जिसका काल निकट आ जाता है, उसे आप ही की तरह भ्रम हो जाता है। आप चिंतन कीजिए, आप के दो पुत्र मर गए, और नगर भी जल गया। वह तो चलो जो हुआ सो हुआ। लेकिन हे प्रियतम! अब भी इस भूल की पूति कर दीजिए। आप श्रीराम जी से बैर त्याग दीजिए, और हे नाथ! कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी को भजकर निर्मल यश लीजिए।
रानी मंदोदरी रावण को पूरी रात समझाती रही। ऐसे ही रात का दम घुटता चला गया, और सुबह हो गई। रावण पूरी रात एक शब्द न बोला। रानी के बाणों के समान वचन सुनता ही गया। और सुबह होते ही उठकर सभा में चला गया। और सारा भय भुलाकर अत्यंत अभियान में फूलकर सिंहासन पर जा बैठा।
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