धर्म-अध्यात्म

भगवान श्रीकृष्ण ने जरासंध से बातचीत के दौरान क्या क्या कहा था

Manish Sahu
28 Aug 2023 6:14 PM GMT
भगवान श्रीकृष्ण ने जरासंध से बातचीत के दौरान क्या क्या कहा था
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धर्म अध्यात्म: भागवत-कथा श्रवण करने वाले जन-मानस में भगवान श्री कृष्ण की छवि अंकित हो जाती है। यह कथा “पुनाति भुवन त्रयम” तीनों लोकों को पवित्र कर देती है। तो आइए ! इस कथामृत सरोवर में अवगाहन करें और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाकर अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।
मित्रों ! पूर्व कथा प्रसंग में हमने स्यमंतक मणि की कथा के साथ-साथ भगवान के द्वारा सूर्य पुत्री कालिंदी, मित्रवृंदा, सत्या, भद्रा, और लक्ष्मणा आदि कन्याओं के साथ विवाह की कथा का श्रवण किया।
भगवान ने भौमासुर का वध कर सोलह हजार एक सौ आठ कन्याओं के साथ विवाह कर उनका भी उद्धार किया।
आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं–
युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ
शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! एक दिन महाराज युधिष्ठिर अपने बंधु-बांधवों तथा आचार्य गुरुजनों के साथ राज सभा में बैठे थे। तब तक विचरण करते हुए देवर्षि नारद वहाँ पधारे। युधिष्ठिर ने मुनिवर का समुचित सत्कार किया और पूछ दिया--- महात्मन ! स्वर्ग में मेरे पिताश्री पांडु कैसे हैं? नारद ने कहा— राजन ! बाकी सब तो ठीक है, लेकिन आपके पिताश्री की कुर्सी सत्यवादी हरिश्चंद्र से नीचे है। आप राजसूय यज्ञ कीजिए और उसका फल उनको दीजिए। मैं यहाँ से कृष्ण के पास ही जा रहा हूँ, यह खबर उनको दे दूंगा।
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प्रात: काल का समय है। द्वारिकेश द्वारिका पूरी के प्रांगण में बैठे हैं। तब तक उन्होने आकाश मार्ग से आते हुए नारद मुनि को देखा ---
शिशुपाल वध काव्य में महाकवि माघ कहते हैं ---
श्रियःपतिःश्रीमतिशासितुं जगज्जगन्निवासो वसुदेवसद्मनि ।
वसन् ददर्शावतरन्तमम्बराद् हिरण्यगर्भाङ्गभुवं मुनिं हरिः ॥
नारदजी ने कृष्ण भगवान से सारी बात बताई। उद्धव जी जो महमति के धनी थे, उनसे सलाह लेकर भगवान श्री कृष्ण इन्द्रप्रस्थ पधारे। महाराज युधिष्ठिर का हृदय आनंद से भर गया। उन्होंने भगवान का बड़े ज़ोर-शोर से स्वागत किया। भीम अर्जुन नकुल और सहदेव आदि चारों भाइयों ने भी बड़े प्रेम से आलिंगन किया। जब कुंती ने त्रिभुवन पति अपने भतीजे श्री कृष्ण को देखा तो उनका हृदय प्रेम से भर गया। वे पलंग से उतरकर अपनी पुत्रवधू द्रौपदी के साथ आगे गईं और श्रीकृष्ण को छाती से लगा लिया। भगवान ने भी अपनी बूआ कुंती और गुरु पत्नियों का अभिवादन किया।
महाराज युधिष्ठिर अपने बंधु-बांधवों तथा आचार्य गुरुजनों के साथ राज सभा में बैठे थे। उन्होने सबके सामने श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए कहा– हे गोविंद ! मैं परम पावन राजसूय यज्ञ करना चाहता हूँ। कृपा करके मेरा यह संकल्प पूरा कीजिए। भगवान ने कहा- आपका संकल्प बहुत ही उत्तम है इस राजसूय यज्ञ से आपकी मंगल मई कीर्ति का विस्तार होगा।
सम्यक व्यवसितम् राजन् भवता शत्रु कर्शन
कल्याणी येन ते कीर्ति; लोकाननु भविष्यति ॥
शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवान की बात सुनकर युधिष्ठिर का हृदय आनंद से भर गया। उन्होने अपने भाइयों को दिग्विजय करने का आदेश दिया। भगवान ने पांडवों मे अपनी शक्ति का संचार करके उनको अत्यंत प्रभावशाली बना दिया। चारो भाई अपने बल-पराक्रम से राजाओं को जीतकर युधिष्ठिर को बहुत सा धन दिया। किन्तु युधिष्ठिर ने जब यह सुना कि अब तक जरासंध को नहीं हराया जा सका है तब वे चिंता में पड़ गए। श्रीकृष्ण ने उनको ढाढ़स बँधाया और भीम, अर्जुन तथा श्रीकृष्ण तीनों ने ब्राह्मण का वेश धारण करके जरासंध की राजधानी गिरिव्रज पहुँच गए। राजा जरासंध ब्राह्मण भक्त था। आज तक उसने किसी भी ब्राह्मण याचक को निराश नहीं किया था। जरासंध ने उन तीनों की आवाज शक्ल, सूरत और उनकी कलाइयों पर धनुष की प्रत्यंचा की रगड़ के निशान देखकर पहचान लिया कि ये ब्राह्मण नहीं क्षत्रिय हैं। उसने मन में विचार किया मेरे डर से इन्होने ब्राह्मण का वेश धारण किया है। जब ये भीख माँगने पर ही उतारू हैं तब चाहे जो मांगे इन्हे अवश्य दूंगा। राजा बलि और विष्णु का उदाहरण सोचकर कहा- ब्राह्मणों आप लोग मनचाही वस्तु माँग लें।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- हे राजेन्द्र जरासंध! हम अन्न के इच्छुक नहीं है। हम क्षत्रिय हैं यदि आप देना ही चाहते हैं तो हमे द्वंद्व युद्ध की भिक्षा दीजिए। ये पांडु पुत्र भीमसेन हैं, यह अर्जुन है और मैं इनका ममेरा भाई और आपका पुराना शत्रु कृष्ण हूँ। जब भगवान ने इसप्रकार अपना परिचय दिया तब जरासंध ठहाका मारकर हंसने लगा। और चिढ़कर बोला- अरे मूर्खों! यदि तुम लोग युद्ध ही चाहते हो तो मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ। परंतु कृष्ण तुम बड़े ही डरपोक हो। युद्ध में तुम घबरा जाते हो। मेरे डर से तुमने मथुरा नागरी छोड़कर समुद्र में शरण ले ली है। इसलिए मैं तुम्हारे साथ नहीं लड़ सकता।
अर्जुन मुझसे छोटा है वह कोई विशेष वीर भी नहीं है। वह मेरे जोड़ का नहीं है। ये भीमसेन बलवान है और मेरे जोड़ के भी हैं ऐसा कहकर जरासंध ने भीम को एक बड़ी गदा दे दी और स्वयं दूसरी गदा लेकर अखाड़े में आ गया। अब दोनों एक दूसरे के साथ भीड़ गए और एक दूसरे पर गदा प्रहार करने लगे। दोनों के बीच भीषण गदा युद्ध कई दिनों तक होता रहा। जरासंध और भीम एक दूसरे के शरीर पर चोट करने लगे। उनकी गदाएँ उनके अंगों से टकराकर चकनाचूर होने लगीं। शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित ! दोनों ही गदा युद्ध में परम प्रवीण थे। दोनों में से किसी की जीत या हार नहीं हुई। विचित्र बात तो यह थी कि दोनों रात के समय मित्र के समान रहते और दिन में एक दूसरे पर शत्रु की तरह टूट पड़ते। इस प्रकार लड़ते-लड़ते सत्ताईस दिन बीत गए। अठाइसवे दिन भीमसेन ने श्रीकृष्ण से कहा- हे कृष्ण! मैं युद्ध में जरासंध को नहीं जीता सकता।
एकदा मातुलेयम वै प्राह राजन वृकोदर; ।
न शक्तोहंजरासंधम निर्जेतुमयुधि माधव ॥
अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण जरासंध के जन्म और मृत्यु का रहस्य जानते थे कि जरा नाम की राक्षसी ने जरासंध के शरीर के दो टुकड़ों को जोड़कर जीवन दिया है। भगवान ने एक वृक्ष की डाली को बीच से चीरकर इशारे से समझाया। परम शक्ति शाली भीम ने भगवान का अभिप्राय समझ लिया और जरासंध को जमीन पर गिराकर उसके एक पैर को अपने एक पैर से दबाया और दूसरे पैर को अपने दोनों हाथों से पकड़कर बीच से चीर दिया जैसे मतवाला गजराज पेड़ की डाली चीर डालता है। शायद तभी से टंगरी चीरने की बात शुरू हुई। मगध राज जरासंध की मृत्यु के बाद प्रभु ने उसके पुत्र सहदेव को राज सिंहासन पर बैठाया। अब प्रभु की अनुमति लेकर पांडव नन्दन युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ-कर्म आरंभ किया। अब सभी लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि अग्र पूजा किसकी होनी चाहिए। सभी ने श्रीकृष्ण के नाम का समर्थन किया। उसी समय यज्ञ सभा मे उपस्थित शिशुपाल ने श्रीकृष्ण का यह कहकर विरोध किया कि— यह कृष्ण यदुकुल का कलंक है। इसकी न जाति का ठिकाना न खानदान का। यह लोक मर्यादा का उलंघन करने वाला है। यह अग्र पूजा का अधिकारी नहीं हो सकता। इस प्रकार उसने भरी सभा में कठोर शब्दों में कृष्ण का घोर अपमान किया। कृष्ण चुपचाप उसकी बात सुनते रहे कोई उत्तर नहीं दिया। सभा में बैठे सभी सभ्य लोगो ने अपने अपने कान बंद कर लिए। भगवान की निंदा नहीं सुननी चाहिए। अब श्रीकृष्ण के पक्षधर राजा शिशुपाल को मारने के लिए दौड़े। भगवान उठ खड़े हुए राजाओं को शांत किया और अपने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का सिर काट दिया। सबके देखते देखते उसके शरीर से एक ज्योति निकली और आनंद कंद भगवान श्रीकृष्ण के श्री चरणों में समा गई। इस तरह युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ पूर्ण करने के पश्चात भगवान वहाँ कुछ दिनो तक रहे और बाद मे अपनी रानियो और मंत्रियों के साथ हस्तिनापुर से द्वारिका पूरी आ गए।
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