धर्म-अध्यात्म

आज है गुरु गोबिंद सिंह का शहीदी दिवस, जानिए उनके अंतिम संस्कार के बाद हुई चमत्कार की कहानी

Nilmani Pal
7 Oct 2020 12:05 PM GMT
आज है गुरु गोबिंद सिंह का शहीदी दिवस, जानिए उनके अंतिम संस्कार के बाद हुई चमत्कार की कहानी
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7 अक्टूबर 1708 गुरु गोबिंद सिंह ने महाराष्ट्र के नांदेड़ में स्थित श्री हुजूर साहिब में अपने प्राणों का त्याग किया था

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। गुरु गोबिंद सिंह ने 1708 में 7 अक्टूबर को महाराष्ट्र के नांदेड़ में स्थित श्री हुजूर साहिब में अपने प्राणों का त्याग किया था. तभी से इस दिन को शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. हालांकि, उनके अंतिम संस्कार के बारे में बहुत सी अनोखी बातें कही जाती हैं. कहा जाता है कि गुरु गोबिंद सिंह जी की अंत्येष्टि चिता का निर्माण एक झोंपड़ी के रूप में किया गया था और गुरुजी अपने नीले घोड़े पर सवार होकर अंतिम संस्कार की चिता पर आए थे.

गुरु गोबिंद सिंह ने 1708 में 7 अक्टूबर को महाराष्ट्र के नांदेड़ में स्थित श्री हुजूर साहिब में अपने प्राणों का त्याग किया था. तभी से इस दिन को शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. हालांकि, उनके अंतिम संस्कार के बारे में बहुत सी अनोखी बातें कही जाती हैं. कहा जाता है कि गुरु गोबिंद सिंह जी की अंत्येष्टि चिता का निर्माण एक झोंपड़ी के रूप में किया गया था और गुरुजी अपने नीले घोड़े पर सवार होकर अंतिम संस्कार की चिता पर आए थे.

गुरु गोबिंद की हत्या की कोशिश- एक हमले में गंभीर रूप से घायल गुरु गोबिंद सिंह जी के ठीक होने की खबर सुनकर सरहिंद का नवाब वजीर खान चिंतित हो गया. वजीर खान गुरु गोबिंद की राजा से बढ़ती करीबी को देखकर जलता था. उसने अपने दो आदमियों गुरु की हत्या का आदेश देकर भेजा. जमशेद खान और वासिल बेग नाम के पठान गुरू की सेना में चुपके से शामिल हो गए. गुरु गोबिंद सिंह जब अपने कक्ष में आराम कर रहे थे तभी इनमें से एक पठान ने गुरू के दिल के नीचे बाईं ओर छुरा घोंप दिया. इससे पहले कि वह दूसरा हमला करता, गुरु गोबिंद सिंह ने उस पर कृपाण से वार कर दिया और उन्हें मार गिराया.

फिर से उभर आई चोट- इस हमले में गुरु साहिब को गहरी चोट लगी थी लेकिन दरबार के यूरोपीय चिकित्सकों की मदद से वो जल्दी ठीक होने लगे. कुछ दिनों बाद हैदराबाद से कुछ कारीगर गुरु साहिब के पास आए और उन्हें शस्त्र भेंट किए. गुरु ने बदले में उन्हें कई ऐसे धनुष दिए जिन्हें चलाना बहुत कठिन था. किसी ने गुरू से इसे चलाने का तरीका पूछा. गुरु ने उसकी इच्छा पूरी करने के लिए जैसे ही धनुष को खींचा, उनका घाव फिर उभर गया और तेजी से खून बहने लगा.




गुरु गोबिंद सिंह का फिर से इलाज किया गया लेकिन गुरु को इस बात का आभास हो गया था कि स्वर्ग से उनके पिता का बुलावा आ चुका है. उन्होंने अपने प्रस्थान के लिए संगत तैयार किया, तत्काल मुख्य सेवादारों को निर्देश दिए गए और उन्होंने अपना आखिरी संदेश खालसा की सभा को दिया. इसके बाद उन्होंने ग्रंथ साहिब खोला और 'वाहेगुरु जी की खालसा, वाहेगुरू जी की फतेह ' कहते हुए इसकी परिक्रमा की.

गुरु गोंबिंद ने कहा, 'जो मुझसे मिलने की इच्छा रखते हैं, वो मुझे भजन-कीर्तन में खोजें.' इसके बाद उन्होंने अपना लिखा भजन गाया. उन्होंने सभी सिखों से गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरू मानने को कहा. उन्होंने कहा कि जो लोग भगवान से मिलना चाहते हैं, वे उन्हें अपने भजन में पा सकते हैं. खालसा का शासन होगा और इसके विरोधियों के लिए कोई जगह नहीं होगी. अलग हो चुके लोग एकजुट होंगे और सभी अनुयायियों को बचाया जाएगा.

उस दिन गुरुगाड़ी लंगर को कहीं और स्थानांतरित किया गया था. इसमें विभिन्न प्रकार के भोजन परोसे गए. इसके बाद गुरु ने खुद अपनी चिता की तैयारी की. इसके चारों तरफ दीवार बनाई गई. गुरु गोबिंद सिंह ने कहा कि उनकी चिता को आग लगाने के बाद कोई भी अंगीठा साहिब को नहीं खोलेगा और ना ही उनकी मृत्यु के बाद किसी भी तरह की समाधि बनाई जाएगी. गुरु जी अपनी चिता के पास गए. इस दौरान लोग बुरी तरह रो रहे थे. आग की ऊंची-ऊंची लपटों के बीच गुरु जी अचानक अपने घोड़े के साथ गायब हो गए.

इस बीच, भाई संगत सिंह उस समय हजूर साहिब आ रहे थे. उन्होंने लोगों को बताया कि वह नांदेड़ के पास चील और घोड़े के साथ गुरु साहिब से रास्ते में मिले थे. गुरु ने एक सच्चे सिख होने के लिए उनकी सराहना की और प्रसाद के तौर पर कराह भी दिया. इसके बाद भाई दया सिंह ने चिता जलने के थोड़ी देर बाद अंगीठा साहिब का दरवाजा खोल दिया और जब वो अंदर गए तो एक छोटे से कृपाण के अलावा वहां कुछ भी नहीं था.






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