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अष्ट सिद्धि और नौ निधि प्राप्त करने के लिए ऐसे करें भगवान की भक्ति
आणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशत्त्व, वशित्त्व। ये अष्ट सिद्धियां हैं। साधक इन्हें प्राप्त कर चमत्कार कर जनमानस को आश्चर्य में डालकर उसका मनमाना उपयोग कर सकता है, पर यह संभावना साधनजन्य सिद्धियों में तो है, पर कृपा से प्राप्त सिद्धियों में कदापि नहीं। हमारे पुराणों में तथा श्रीरामचरितमानस में ज्ञानिनामग्रगण्यम् हनुमान जी को ये सिद्धियां पहले से ही प्राप्त थीं, परंतु मां भगवती श्रीसीता जी ने हनुमान जी को आशीर्वाद देकर उनकी सिद्धियों को अनंतगुना कर दिया।
कई बार हनुमान जी ने अपने शरीर को एक अणु के समान छोटा कर लिया, पर हनुमान जी में वास्तविक अणिमा सिद्धि का प्रमाण तब देखने में आया, जब लंका में जाकर इतना बड़ा पराक्रम करने के पश्चात भी हनुमान जी ने सीता जी से कहा कि मुझमें कोई योग्यता नहीं है, यह तो हमारे प्रभु श्रीराम की महिमा और प्रताप है। उनके प्रभाव से तो सर्प का छोटा बच्चा भी गरुण को खा सकता है:ट करना ही हनुमान जी की अणिमा और महिमा सिद्धि है। हनुमान जी की गरिमा सिद्धि तब सिद्ध हुई, जब लंका में जाकर उन्होंने अपने शरीर को बहुत बढ़ा लिया, पर उनके शरीर का भार नहीं के बराबर था। तात्पर्य यह है कि बड़े-बड़े कार्य कर लेने पर साधक के अंदर अभिमान का भारीपन नहीं होना चाहिए। हनुमान जी ने राम नाम के रूप में संपूर्ण ब्रह्मांड, सूर्य, चंद्रमा, अग्नि, समस्त खगोल और भूगोल को अपने मुख में धारण कर लिया, पर उनकी धारणा है कि मैं राम नाम को लेकर नहीं चल रहा हूं, बल्कि राम नाम मुझे लेकर चल रहा है। साधक में इस भावना का उदय कृपा से प्राप्त सिद्धि में ही संभव होता है। हनुमान जी की यही गरिमा और लघिमा सिद्धि है।
अपने मन से सहज रूप में ही कहीं भी पहुंच जाना और प्राप्तव्य को धारण करने का योग और उसका रक्षण-क्षेम करना, यह प्राप्ति सिद्धि है। हनुमान जी ने लंका में विभीषण का घर खोज लिया, जहां भगवान का नाम मंत्र का जप चलता रहता है। विभीषण के पास जाकर न केवल उन्होंने सीता जी के निवास का पता कर लिया, अपितु विभीषण को भी भगवान की शरणागति का मंत्र दे दिया। हनुमान जी ने विभीषण जी को राम नाम लेते हुए देखा तो वे समझ गये कि उन्हें राम नाम सिद्ध ही है, अब मैं भी अपना कार्य यहीं से सिद्ध करता हूं। हनुमान जी ने सीता जी की प्राप्ति का उपाय और युक्ति भक्त विभीषण से ही प्राप्त की। यही हनुमान जी की प्राप्ति और प्राकाम्य सिद्धि है।
हनुमान जी में ईशत्त्व और वशित्त्व इस तरह सिद्ध है कि उन्होंने अपने प्रभु का ध्यान करते-करते उनसे तद्रूपता प्राप्त कर ली है। पुराणों में वर्णन आता है कि हनुमान जी ने प्रभु से अपनी एकरूपता के तीन स्वरूप बताये हैं- देह बुद्धि, जीव बुद्धि और आत्मबुद्धि। हनुमान जी कहते हैं कि देह बुद्धि से तो मैं अपने प्रभु का दास हूं, जीव बुद्धि से मैं उनका अंश हूं तथा आत्मरूप से तो मैं और वे दोनों एक हैं। दोनों में कोई भेद है ही नहीं। हनुमान जी ने संसार में न तो किसी को अपना दास बनाया और भगवान श्रीराम के अतिरिक्त न ही किसी की दासता को स्वीकार किया। वे सर्वदा भगवान के वश में रहे और अपनी भक्ति और प्रेम से भगवान को ही वश में कर लिया। इसके बाद साधक को आवश्यकता ही किसकी रह जाती है?
इसी प्रकार नौ निधियों का संबंध भी अकूत धन संपदा से है, जो व्यक्ति को अष्ट सिद्धि से भी अधिक आकृष्ट करती है। कदाचित रावण के पास जो संपदा थी, वैसा वर्णन अन्यत्र कहीं पढऩे में नहीं आता है, पर हनुमान जी ने लंका में जाकर रावण को इन निधियों को धिक्कारते हुए कहा था- हे रावण! तुम जिस महामाया, महाशक्ति की कृपा से ये सारे वैभव अचल कर सकते थे, तुम उन्हीं महादेवी को चुराकर उनके शाश्वत स्वामी श्रीराम से विमुख हो चुके हो। हनुमान जी कहते हैं कि श्रीराम से विमुख होकर कितनी भी संपत्ति और प्रभुता व्यक्ति को मिल जाए, वह तो केवल बरसाती नदी के पानी की तरह है, जो बरसात के बाद सूख जाता है। जिस प्रभुता और संपदा का मूल ईश्वर की कृपा तथा भक्ति से नहीं होगा, वह प्रभुता और धन पाने के बाद भी न पाने जैसा ही होगा। अष्ट सिद्धि और नौ निधि संभव हैं, पर ये शक्तियां चिरंजीवी और धन्य तब कर पाती हैं, जब ये ईश्वर की कृपा से प्राप्त होती हैं। हनुमान जी ने रावण से कहा कि लंका में मैंने जो भी कार्य किए, उन्हें सुनकर तुम्हें लगता है कि यह मैंने किसके बल से कर डाला, तो तुम यह समझ लो कि मेरे पीछे और तुमने जो सब ये वैभव प्राप्त किया है, उसके पीछे जो शक्ति कार्य कर रही है, वह केवल प्रभु श्रीराम की है। अंतर केवल इतना है कि मैं मान रहा हूं और तुम नहीं मान रहे हो। सत्य को मान लेना और उस परम सत्य पर निष्ठ रहना ही अष्ट सिद्धि है और वही निधि है।
भगवान राम जब विवाह करके अपने तीनों भाइयों व सीता जी सहित जनकपुर से अयोध्या लौटे तो अयोध्या में उनकी तीनों माताओं कौशल्याजी, सुमित्रा जी और कैकेयी जी को उन्हें देखकर कैसा सुख मिल रहा है, वहां गोस्वामी जी ने नौ निधि की प्राप्ति के सुख से भी बढ़कर जो अनंत सुख है, उसका वर्णन करते हुए कहा कि 'पावा परम तत्त्व जनु जोगी' अर्थात जैसे किसी योगी ने सिद्धि पाने के लिए जीवन भर साधना की हो और उसे उसके अभीष्ट की प्राप्ति हो गई हो, ऐसा सुख माताओं को मिल रहा है। फिर वह कहते हैं-' अमृत लहेउ जनु संतत रोगी' अर्थात जैसे किसी जन्मजात रोगी को अमृत मिल गया हो, वैसा सुख माताओं को मिल रहा है। वह उदाहरण देते हैं, 'जनम रंक जनु पारस पावा' अर्थात जन्म से ही कोई भिखारी रहा हो और उसे पारस पत्थर मिल जाए, तब न केवल उसकी दरिद्रता समाप्त हो जाए, अपितु असंख्य लोगों की दरिद्रता समाप्त करने का सामथ्र्य आ जाए, माताएं ऐसा सुख पा रही हैं। उन्होंने कहा कि 'अंधहिं लोचन लाभ सुहावा' जैसे अंधे को आंखें मिल जाएं, और जैसे 'मूक बदन जनु सारद छाई' जन्मजात गूंगे की वाणी पर आकर सरस्वती जी आकर बैठ जाए। इससे भी आगे कहा कि 'मानहुं समर सूर जय पाई', जैसे युद्ध में योद्धा को विजय मिल गई हो। किसी ने तुलसीदास जी से पूछा कि अब कुछ बाकी तो नहीं है? तो उन्होंने कहा कि अभी नौनिधि की सीमा को लांघना बाकी है। तब कहते हैं 'एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु' इन सुखों को सौ करोड़ से गुणा कर दीजिए, इतना सुख माताओं को मिल रहा है। तब पता चला कि नौ निधि में पद्म निधि, महापद्मनिधि, नील नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नन्दनिधि, मकरनिधि, कछपनिधि, शंखनिधि, खर्व निधि की मात्रा की सीमा हो सकती है, पर यह तो अनंत सुख है। यही वह राम अनंत गुण का सुख है, जिसका आनंद हमेशा शंकर जी लेते हैं और पार्वती जी को रामकथा सुनाकर देते हैं। राजा जनक जी ने जब भगवान को दूल्हा रूप में देखा तो उनकी स्थिति वैसी ही हो गई, जैसे जन्म से दरिद्र व्यक्ति ने संसार की सारी निधि को पा लिया हो।