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गुजरात के नर्मदा जिले में 443 साल पुराने हरसिद्धि माता मंदिर में लगता है। इस मेले में हर साल नवरात्रि पर्व के दौरान हजारों श्रद्धालु माता के दर्शन करने आते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां आने वाले हर इंसान की इच्छा पूरी होती है। इस मंदिर को लेकर लोगों के मन में क्या मान्यता है उसके बारे में हम आपको बताते हैं...
राजपिपला गोहिल वंश के राजाओं का एक शहर है। दरअसल 16वीं सदी में कई साल तक गोहिल वंश के छत्रसाल महाराज का शासन था। उनकी पत्नी का नाम नंदकुवारबा था। दोनों काफी धार्मिक थे। वे मां हरसिद्धि के परम उपासक थे। माता की कृपा से उन्होंने सन् 1630 में एक पुत्र का जन्म दिया था। पुत्र भी अपने माता-पिता की तरह भक्ति में लीन रहता था। उन्होंने उसका नाम वेरीसाल रखा था। वह हरसिद्धि की उपासना करने हमेशा उज्जैन जाते थे। छोटी उम्र के दौरान भी वह कई बार उज्जैन आए और हरसिद्धि मां के दर्शन किए। जब भी वेरीसाल अपनी मां से पूछते कि मां हरसिद्धि कहां से आईं और यह मंदिर किसने बनाया है, तो मां उनको समझा देती थी। यह मंदिर माता जी के परम उपासक महाराज वीर विक्रमादित्य ने बनवाया था। इसलिए वह मां हरसिद्धि माता को कोयला डूंगर यानी उज्जैन नगरी ले आए।
यह बात सुनकर छोटे बच्चे वेरीसाल को भी विचार आया कि अगर राजा विक्रमादित्य मां को उज्जैन ला सकते हैं तो मैं क्यों अपनी नगरी में माता को नहीं ला सकता हूं। 1652 में वेरीसाल के पिता राजा छत्रसाल जी का निधन हो गया। तब वेरीसाल 22 वर्ष के थे। उसी आयु में वेरीसाल का राज्याभिषेक हुआ और राजपिपला की गद्दी पर वो बैठे। गद्दी पर बैठने के बाद भी राजा वेरीसाल जी ने माता हरसिद्धि की पूजा चालू रखी। गद्दी पर बैठने के बाद अपनी कुलदेवी हरसिद्धि माता के दर्शन के लिए उज्जैन जाते थे। ऐसी मान्यता है कि उनको एक बार सपने में हरसिद्धि माता ने उनके नगर में आने की बात कही और कहा कि मैं तेरी नगरी में आउंगी। मगर पीछे मुड़कर मत देखना यह सब तुझे मंजूर है तो मैं तेरी इच्छा पूरी जरूर करुंगी। उज्जैन से तेरे साथ आउंगी। सपना पूरा हुआ। और हरसिद्धि माता अंतर्ध्यान हो गईं।
वेरीसाल की सुबह जब आंखें खुली तो वे माता के दर्शन करने उज्जैन के लिए निकले। उज्जैन नगरी में स्नान विधि पूरी करके वह माता के मंदिर में पूजा करने गए। माता हरसिद्धि ने वेरीसाल जी की परीक्षा ली। जब वह पूजा सामग्री लेकर आए तो वो कुमकुम लाना भूल गए थे। वेरीसाल का नियम था कि कुमकुम के बिना वह पूजा नहीं करते थे। उन्होंने अपने हाथ की उंगली काटकर अपने लहू से माता को टीका कर पूजन विधि पूरी की। वेरीसाल की भक्ति से मां अत्यंत प्रसन्न हुई। उसी समय आकाश से आवाज आई कि राजन तू अपने घोड़े पर बैठकर जा मैं तेरे पीछे आती हूं। थोड़े समय में वह अपने राज्य राजपिपला पहुंच गए। ऐसे में राजा को लगा कि मैं तो आ गया, लेकिन क्या हरसिद्धि मां आ रही हैं।
उसी समय उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तो तुरंत माता ने कहा कि हे पुत्र तूने वादा तोड़ दिया। उसके बाद माता यहीं रुक गई। तब वहीं हरसिद्धि माता का मंदिर बन गया। ऐसा मानना है कि 1657 में नवरात्रि के आठवें दिन हरसिद्धि माता का आगमन यहां पर हुआ था। जहां हरसिद्धि माता रुक गई थीं, उसी जगह आज मंदिर है।
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