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ऐसे ले जीवन की अनुभूति, स्वयं में भगवान देते हैं दर्शन
![ऐसे ले जीवन की अनुभूति, स्वयं में भगवान देते हैं दर्शन ऐसे ले जीवन की अनुभूति, स्वयं में भगवान देते हैं दर्शन](https://jantaserishta.com/h-upload/2021/02/25/959502--.webp)
जनता से रिश्ता बेवङेस्क | पत्थर से निर्मित मूर्ति की पूजा कब होती है? जब मंत्र शक्ति द्वारा पुरोहित उसमें प्राण प्रतिष्ठित करते हैं। प्राण प्रतिष्ठा होने पर मूर्ति चैतन्य होनी चाहिए, लेकिन नहीं होती, जड़ ही रहती है। मनुष्य जड़ नहीं है, चलती-फिरती एक मूरत है। इसलिए उसे प्राण प्रतिष्ठा की जरूरत नहीं है बल्कि जागृत होने की आवश्यकता है। प्राण तो हर मनुष्य में मौजूद है, परंतु वह इससे बेखबर है, अनजान है। इसलिए उस प्राण को जानना, उसे जागृत करना है। सदगुरु प्राण को जागृत करने का कार्य बखूबी कर देते हैं।
जब पत्थर की बनी मूर्ति में मंत्र शक्ति द्वारा प्राणों की प्रतिष्ठा हो सकती है तो भला मनुष्य में भगवान प्रतिष्ठित क्यों नहीं हो सकते? जिस तरह से मंत्र शक्ति से पत्थर की मूर्ति में चेतना जागृत होती है, उसी प्रकार मनुष्य के हृदय में भी भगवान की प्राण प्रतिष्ठा हो सकती है। यहां दो बातें हैं- पत्थर में चेतना जागृत होना जबकि हम स्वयं देखते हैं कि चैतन्य होने पर चलना-फिरना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता। दूसरी, मनुष्य के हृदय में तो चैतन्य पहले से ही मौजूद है, आवश्यकता है उसे जागृत करने की।
सबके हृदय में भगवान विराजमान हैं, परंतु वह मनुष्य धन्य है जिसके अंदर वह प्रगट हो गए। वह धन्य है जिसने अपने अंदर के भगवान को साक्षात अनुभव कर लिया। अफसोस है कि हमें अंदर के भगवान पर विश्वास नहीं और बाहर मूर्ति बनाकर उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। अंदर के प्राण के प्रति जागृत न होकर मोह-माया की नींद में सोए हुए हैं। भगवद्गीता में भगवान स्वयं ही कहते हैं कि 'मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो।' अर्थात मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण वह स्वयं ही है। मन ही मनुष्य का शत्रु है और मित्र भी। जब अंदर के भगवान का साक्षात्कार हो जाता है तो मनुष्य अनेकानेक बुरे कर्मों को त्याग देता है और सतपुरुष बन जाता है। चेतना जागृत होने पर अनेक व्यसनों का अंत हो जाता है।
अतैव आवश्यकता है अंतःकरण में प्राण-प्रतिष्ठा का भाव जागृत करने की। इससे गोस्वामीजी के शब्दों को अर्थ मिल जाता है-'सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी।' सारा जगत राममय भासित होता है क्योंकि अपने अंदर राम के दर्शन हो गए तो सभी मनुष्यों में राम दिखाई देंगे। चेतनावस्था में मनुष्य के सभी प्रकार के शोक, संशय व अन्य दोष स्वतः समाप्त हो जाते हैं और मनुष्य सुख की अनुभूति प्राप्त कर लेता है।
इतना निश्चित है कि बिना सदगुरु के प्राण जागृत नहीं होते, ज्ञान नहीं मिलता। इसलिए सदगुरु की आवश्यकता पर बल दिया गया है। जब बिना पुरोहित के पत्थर की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा नहीं होती तो सदगुरु की बात तो और भी निराली है। इसलिए कबीर ने कहा- 'गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय। बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय।' चूंकि सदगुरु गोविंद के दर्शन करा देते हैं इसलिए प्रथम वंदनीय, पूजनीय हैं। भगवान तो पहले से ही हमारे अंदर मौजूद है परंतु अपनी कृपा शक्ति से उसको प्रगट कर दिया तो हम धन्य हो गए। तो कितनी सुंदर बात है कि सदगुरु अंदर के चैतन्य को जागृत कर देते हैं, प्राण जागृत कर देते हैं जिसकी प्रत्येक मनुष्य को आवश्यकता है। ऐसा होने से मनुष्य जीवन की अनुभूति में सराबोर हो जाता है।