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मनुष्य की ये आदत उसे कर देती है बर्बाद, जिंदगी भर रहता है कुंठित
एक कहावत है कि कर्ज का मर्ज बहुत खराब है। ऋण का जाल आकर्षक होता है, पर उससे निकलना आसान नहीं। प्राचीन भारतीय दर्शन कहता है कि हमको अपने सीमित संसाधनों में ही जीवन का निर्वहन करना चाहिए। किंतु वर्तमान समय में कर्ज लेना एक प्रचलन हो गया है। आज लगभग प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ कर्ज लिए हुए है। परिणामत: व्यक्ति की आय का बड़ा हिस्सा ऋण को उतारने में ही चला जाता है। जिसकी वजह से लोग आज तनाव एवं भयपूर्ण जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हैं। आचार्य चाणक्य के अनुसार कर्ज के बोझ से व्यक्ति अंदर ही अंदर खुद को दबा हुआ महसूस करता है तथा कर्ज इंसान को चिंताग्रस्त कर देता है। मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन कर्ज ही है। कर्जदार इंसान हर समय इन्हीं बातों से दुखी रहता है कि वह लिए गए कर्ज को कैसे चुकाएगा।
समाज में बढ़ती ऋण लेने की प्रवृत्ति हमारी भौतिकतावादी विलासतापूर्ण जीवन जीने का परिणाम है। हम भौतिक सुखों को प्राप्त करने एवं समाज में बनावटी प्रतिष्ठा के लिए कर्जयुक्त जीवन का सहारा लेते हैं। जिसके परिणाम हमें जीवन में अशांति की ओर ले जाते हैं। मनीषियों का मत है कि उस घर में स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता कभी नहीं आ सकती, जो परिवार उधार और ऋण पर आश्रित रहता है। ऋण लेना जितना सरल है, उसको चुकाना उतना ही दुष्कर है। कभी-कभी हम पैसों के अभाव में ऋण से मुक्त ही नहीं हो पाते हैं। आयुर्वेद में कर्ज को रोग की संज्ञा दी गई। जिसको यदि समय रहते नहीं चुकाया गया तो यह एक लाइलाज रोग बन जाता है। कुछ लोग 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्' के सिद्धांत में विश्वास करते हुए प्राय: अपनी अनावश्यक इच्छाओं की पूर्ति के लिए ऋण का सहारा लेने लगते हैं। इस प्रकार हमारी ऋण लेने की आदत पड़ जाती है। वास्तव में ऋण लेना मजबूरी नहीं, एक आदत का परिणाम है। अत: हमें शांतिपूर्ण जीवन निर्वाह के लिए कर्ज से बचना चाहिए।