धर्म-अध्यात्म

विकट संकष्टी चतुर्थी की ये गणेश कवच, शाम को जरूर पढ़ें जानें पूजा का शुभ मुहूर्त

Teja
20 April 2022 6:47 AM GMT
विकट संकष्टी चतुर्थी की ये गणेश कवच, शाम को जरूर पढ़ें जानें पूजा का शुभ मुहूर्त
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आज वैशाख माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी है. इस चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहा जाता है

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | आज वैशाख माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी है. इस चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहा जाता है. इसका दूसरा नाम विकट संकष्टी चतुर्थी भी है. इस दिन भगवान गणेश की पूजा कर उन्हें प्रसन्न किया जाता है और सभी विघ्नों को दूर किया जाता है. गणेश भगवान की विधि पूर्वक पूजा करने से न केवल उनकी कृपा बरसती है बल्कि सुख, सौभाग्य, शुभता, बुद्धि, धन आदि की भी बरसात होती है. ऐसे में शाम के समय पूजा के वक्त गणेश कवच पढ़ने से गणेश भगवान जल्दी प्रसन्न होते हैं. आज का हमारा लेख इसी विषय पर है. आज हम आपको अपने इस लेख के माध्यम से बताएंगे कि गणेश कवच कौन सा है. साथ ही शुभ मुहूर्त के बारे में भी जानेंगे. पढ़ते हैं

विकट संकष्टी चतुर्थी तिथि एवं मुहूर्त
वैशाख कृष्ण चतुर्थी तिथि शुरू – 19 अप्रैल, दिन मंगलवार, शाम 04:38 बजे से
वैशाख कृष्ण चतुर्थी तिथि अंत – 20 अप्रैल, दिन बुधवार, दोपहर 01:52 बजे
अभिजीत मुहूर्त – सुबह 11:55 बजे से दोपहर 12:46 बजे तक
चंद्रोदय का समय – रात 09 बजकर 50 मिनट पर
राहुकाल का समय – दोपहर 03:35 बजे से शाम 05:12 बजे तक
विकट संकष्टी चतुर्थी गणेश कवच
संसारमोहनस्यास्य कवचस्य प्रजापति:
ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवो लम्बोदर: स्वयम्॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोग: प्रकीर्तित:।
सर्वेषां कवचानां च सारभूतमिदं मुने॥
ॐ गं हुं श्रीगणेशाय स्वाहा मे पातुमस्तकम्।
द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो ललाटं मे सदावतु॥
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गमिति च संततं पातु लोचनम्।
तालुकं पातु विध्नेशःसंततं धरणीतले॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति च संततं पातु नासिकाम्।
ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा पात्वधरं मम
दन्तानि तालुकां जिह्वां पातु मे षोडशाक्षर:॥
ॐ लं श्रीं लम्बोदरायेति स्वाहा गण्डं सदावतु।
ॐ क्लीं ह्रीं विघन्नाशाय स्वाहा कर्ण सदावतु॥
ॐ श्रीं गं गजाननायेति स्वाहा स्कन्धं सदावतु।
ॐ ह्रीं विनायकायेति स्वाहा पृष्ठं सदावतु
ॐ क्लीं ह्रीमिति कङ्कालं पातु वक्ष:स्थलं च गम्।
करौ पादौ सदा पातु सर्वाङ्गं विघन्निघन्कृत्॥
प्राच्यां लम्बोदर: पातु आगन्य्यां विघन्नायक:।
दक्षिणे पातु विध्नेशो नैर्ऋत्यां तु गजानन:॥
पश्चिमे पार्वतीपुत्रो वायव्यां शंकरात्मज:।
कृष्णस्यांशश्चोत्तरे च परिपूर्णतमस्य च॥
ऐशान्यामेकदन्तश्च हेरम्ब: पातु चो‌र्ध्वत:।
अधो गणाधिप: पातु सर्वपूज्यश्च सर्वत:॥
स्वप्ने जागरणे चैव पातु मां योगिनां गुरु:॥
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्।
संसारमोहनं नाम कवचं परमाद्भुतम्॥
श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके रासमण्डले।
वृन्दावने विनीताय मह्यं दिनकरात्मज:॥
मया दत्तं च तुभ्यं च यस्मै कस्मै न दास्यसि।
परं वरं सर्वपूज्यं सर्वसङ्कटतारणम्॥
गुरुमभ्य‌र्च्य विधिवत् कवचं धारयेत्तु य:।
कण्ठे वा दक्षिणेबाहौ सोऽपि विष्णुर्नसंशय:॥
अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।
ग्रहेन्द्रकवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेच्छंकरात्मजम्।
शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्र: सिद्धिदायक:॥
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