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स्वामी विवेकानंद : दुसरो की मदद करने से पहले मन में रखें लग्न और हिम्मत, सरलता से होंगे सारे काम
जनता से रिश्ता बेवङेस्क | युवा संन्यासी विवेकानंद भारत के अनेक क्षेत्रों का भ्रमण कर कन्याकुमारी पहुंचे। भारत के दक्षिणी छोर पर खड़े इस युवा संन्यासी के मस्तिष्क में अनेक विचार हिलोरें मार रहे थे, वैसे ही जैसे समुद्र की छाती पर लहरें उठ रही थीं। वह कभी तो दूर तक देख लेते, क्षितिज तक नजर दौड़ जाती। कभी किसी एक ही बिंदू पर एकटक देखते हुए बहुत कुछ सोचने लग जाते। तभी एक नाव आई। उनके सामने रुकी। संन्यासी ने कहा, ''भैया! एक काम करोगे?''
''जी कहिए।''
नाविक बोला।
''वह देखो एक चट्टान जो यहां से केवल कुछ गज की ही दूरी पर है।''
''जी! देख रहा हूं। वहां आना-जाना तो हमारा एक ही दिन में कई बार हो जाता है।''
स्वामी जी, ''मुझे ले चलोगे उस चट्टान तक? नाविक ने पूछा ''क्या आपके पास भाड़ा है? एक आना लूंगा।''
''नहीं! मेरे पास तो कोई पैसे नहीं।''
इतना सुनते ही नाविक ने अपना मुंह फेर लिया। दृढ़ निश्चयी संन्यासी विवेकानंद ने तुरन्त अपने कपड़े उतारे। उन्हें सिर पर बांधा और कूद पड़े पानी में। हाथ-पांव चलाते हुए मन में उठी तेज छटपटाहट को दबाते हुए वह तैरते गए। थोड़ी ही देर में उस चट्टान पर जा पहुंचे, जहां तक बिना भाड़ा दिए नाविक ने ले जाने से इन्कार कर दिया था।
नाविक तब बहुत चकित हुआ था, जब उसने इस युवक को समुद्र के ठंडे तथा गहरे पानी में कूदते देखा था। वह तब तक सचेत भी खड़ा रहा, जब तक स्वामी जी उस चट्टान पर पूरी तरह सुरक्षित नहीं जा पहुंचे। यदि मन में हिम्मत तथा लगन हो तो भला क्या नहीं कर सकता व्यक्ति।