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श्रीमद्भगवद्गीता: आत्मा भगवान के तेज किरणों की आध्यात्मिक
जनता से रिश्ता बेवङेस्क | श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
श्लोक-
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन।।
अनुवाद एवं तात्पर्य- यह आत्मा अखंडित तथा अघुलनशील है। इसे न तो जलाया जा सकता है, न ही सुखाया जा सकता है। यह शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाला है।
अणु आत्मा के इतने सारे गुण यही सिद्ध करते हैं कि आत्मा पूर्ण आत्मा का अणु अंश है और बिना किसी परिवर्तन के निरंतर उसी तरह बना रहता है। इस प्रसंग में अद्वैतवाद को व्यवहृत करना कठिन है क्योंकि अणु आत्मा कभी भी परम आत्मा के साथ मिल कर एक नहीं हो सकता।
भौतिक कल्मष से मुक्त होकर अणु आत्मा भगवान के तेज किरणों की आध्यात्मिक स्फुङ्क्षलग बनकर रहना चाह सकता है किन्तु बुद्धिमान जीव तो भगवान की संगति करने के लिए वैकुंठ लोक में प्रवेश करता है।
सर्वगत शब्द महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कोई संशय नहीं है कि जीव भगवान की समग्र सृष्टि में फैले हुए हैं। वे जल, थल, वायु, पृथ्वी के भीतर तथा अग्नि के भीतर भी रहते हैं जो यह मानते हैं कि वे अग्नि में स्वाहा हो जाते हैं वह ठीक नहीं है क्योंकि यहां कहा गया है कि आत्मा को अग्नि द्वारा जलाया नहीं जा सकता। अत: इसमें संदेह नहीं कि सूर्यलोक में भी उपयुक्त प्राणी निवास करते हैं। यदि सूर्यलोक निर्जन हो तो सर्वगत शब्द निरर्थक हो जाता है।