धर्म-अध्यात्म

Shani Stuti: शनिवार के दिन शनि दोष से पाए छुटकारा, विशेष पूजा-अर्चना करने से बनी रहती है कृपा

Tulsi Rao
11 Dec 2021 8:57 AM GMT
Shani Stuti: शनिवार के दिन शनि दोष से पाए छुटकारा, विशेष पूजा-अर्चना करने से बनी रहती है कृपा
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शनिवार का दिन शनिदेव के पूजन (Shanidev Pujan) और उनकी कृपा पाने के लिए खास होता है

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। Shani Stuti Path: शनिवार का दिन शनिदेव के पूजन (Shanidev Pujan) और उनकी कृपा पाने के लिए खास होता है. कहते हैं कि शनि देव (Shani Dev)की कुदृष्टि से बचने के लिए शनिवार (Saturday Puja) के दिन विशेष पूजा-अर्चना करने से उनकी कृपा प्राप्त होती है. उन्हीं के नाम पर इस दिन का नाम शनिवार रखा गया है. बता दें कि शनिदेव को न्याय का देवता माना जाता है. कहते हैं कि हमारे अच्छे-बुरे कर्मों का फल शनिदेव देते हैं. पौराणिक कथा के अनुसार एक बार उनकी पत्नी ने शनिदेव को श्राप दे दिया था, कि वे जिसकी ओर भी अपनी नजर डालेंगे, उसका नाश हो जाएगा. इसलिए जब किसी व्यक्ति पर शनिदेव की वक्र दृष्टि पड़ती है, तो उसे दुष्प्रभाव सहना ही पड़ता है.

कहते हैं कि जिन लोगों पर शनि की साढ़े साती (Shani Sadesati) या ढैय्या (Shani Dhaiya) आदि महादशा चल रही होती है, उन्हें शनि पूजन (Shani Pujan) करना चाहिए. शनिवार के दिन शनि मंदिर (Shani Mandir) में या पीपल के पेड़ (Peepal Upay) के नीच सरसों के तेल का दीया जलाएं. इसमें काले तिल डाल दें और मंदिर में बैठ कर शनि स्तुति का पाठ करें. ऐसा करने से शनि दोष (Shani Dosh) से मुक्ति मिलती है और व्यक्ति के साथ कुछ भी अनिष्ट नहीं होता.
शनिदेव की स्तुति (Shani Dev Stuti)
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च ।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ॥1॥
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ॥2॥
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम: ।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते ॥3॥
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ॥4॥
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते ।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ॥5॥
अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ॥6॥
तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ॥7॥
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥8॥
देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा: ।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत: ॥9॥
प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे ।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ॥10॥


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