धर्म-अध्यात्म

सुधार के दावे और आत्महत्या करते किसान

Subhi
1 Aug 2022 5:37 AM GMT
सुधार के दावे और आत्महत्या करते किसान
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केंद्र सरकार विकसित देशों की तरह भारतीय कृषि के विकास की बात करती है, लेकिन जब किसानों को सबसिडी देने की बात आती है तो कदम पीछे खींच लेती है।

अखिलेश आर्येंदु: केंद्र सरकार विकसित देशों की तरह भारतीय कृषि के विकास की बात करती है, लेकिन जब किसानों को सबसिडी देने की बात आती है तो कदम पीछे खींच लेती है। यह जानते हुए कि विकसित देशों में किसानों को 2.10 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर तक सबसिडी दी जाती है। यही कारण है कि किसी भी विकसित देश का किसान दरिद्रता के कारण आत्महत्या के लिए मजबूर नहीं होता है।

इस साल वर्षा ऋतु में महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, असम, ओड़ीशा, तेलंगाना जैसे राज्यों में औसत से बहुत ज्यादा बरसात हुई है। बिजली गिरने, घर गिरने, पेड़ों के चपेट में आने और तालाबों, नदियों और नहरों में डूबने से सैकड़ों लोगों की मौत हो गई, जिसमें ज्यादातर किसान-मजदूर और गरीब तबके के लोग हैं। अरबों की संपत्ति और खेती-बारी का नुकसान हुआ है। लाखों लोगों को अपना घर-बार छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर शरण लेनी पड़ी है। वहीं उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा में औसत से बहुत कम बरसात हुई है।

अतिवृष्टि और अनावृष्टि (बहुत अधिक बरसात और औसत से बहुत कम बरसात) तो कुदरती आपदा है। इस वजह से किसानों-मजदूरों की जो मौतें हुई हैं, वे कुदरत की कहर मानी जा सकती हैं। लेकिन देश में हर साल हजारों किसान-मजदूर फसल-बागवानी और दूसरी जरूरतों के लिए कर्ज न चुका पाने, फसलों-फलों का नुकसान, लागत ज्यादा और फसल से आमदनी कम होने, परिवारी जनों का बीमारियों के चपेट में आने पर साहूकारों से लिए कर्ज का चुकता न कर पाने और साहूकारों के जरिए किसानों का उत्पीड़न, गरीबी, किसानों के बच्चों की रोजगार की समस्या, किसानों के बच्चों द्वारा लिया गया शिक्षा ऋण न चुका पाने, घरेलू समस्याओं से आजिज आकर आत्महत्या करने की समस्या सालों से बनी हुई हैं।

किसानों की आत्महत्या की घटनाओं को लेकर तमाम आंकड़े जारी किए जाते रहे हैं। सरकारी और गैर-सरकारी आंकड़ों में कई स्तरों में अंतर दिखाई देता है। अब किसानों की आत्महत्याएं चर्चा-मुबाहिसों का विषय नहीं बनतीं। केंद्र और राज्य सरकारों का कहना है कि किसानों की हालत पहले से सुधरी है। अब वे उपेक्षित नहीं हैं, बल्कि उनकी आय को बढ़ाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के जरिए कई योजनाएं और सहूलियतें उन्हें मुहैया कराई गई हैं। सवाल यह है कि अगर किसानों की आर्थिक और पारिवारिक समस्याओं में सुधार आया है तो किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? किसान क्यों गरीबी में जिंदगी बसर करने के लिए मजबूर है?

गौरतलब है कि सबसे ज्यादा किसानों द्वारा आत्महत्याएं महाराष्ट्र के विदर्भ, पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों में की जाती है। मसलन, 1990 के दशक में राज्य अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा दिए गए आंकड़ों के मुताबिक, एक पेशेवर श्रेणी के रूप में यहां के किसान उच्च आत्महत्या दर की समस्या से पीड़ित हैं। विदर्भ क्षेत्र के किसानों द्वारा आत्महत्या की समस्या सबसे गंभीर है। विदर्भ के 3.4 मिलियन किसान कपास की खेती करते हैं। इनमें 95 फीसद ऐसे किसान हैं जो कर्ज लेकर कपास उगाते हैं। कपास की खेती करने वाले विदर्भ के ये किसान बीज, खाद, बिजली, पानी और अन्य जरूरतों के लिए बैंक या साहूकारों से कर्ज लेते हैं। इस क्षेत्र के किसानों की औसत आय सालाना 2700 रुपए प्रति एकड़ है।

पिछले तीन दशक में जिन लाखों किसानों ने आत्महत्याएं कीं, उनमें पंजाब और विदर्भ के किसान सबसे ज्यादा हैं। इनमें विदर्भ के किसान आज भी सबसे ज्यादा आत्महत्याएं कर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि इस साल पिछले छह महीने में ही विदर्भ के 547 किसानों ने आत्महत्या की। देश के किसानों की आत्महत्या दर राष्ट्रीय आत्महत्या दर से भी अधिक है। आत्महत्या के वैश्विक आंकड़े बताते हैं कि आत्महत्या सूची में शीर्ष सौ देशों में होने वाली आत्महत्याओं की सूची में भारत में की गई आत्महत्याओं की कुल संख्या के दोगुने से भी ज्यादा है। इन आत्महत्याओं की वजह सरकारें जानती हैं, फिर भी उनके समाधान पर कोई कारगर पहल नहीं हो पाई है।

दरअसल, खेती-किसानी व किसानों के सामने आज भी सिंचाई का पानी और खाद की उपलब्धता बहुत बड़ी समस्या है। तमाम कवायदों के बाद भी 60 फीसद खेती आज भी कुदरत के भरोसे है। आंकड़ों के मुताबिक, बारिश आधारित खेती में 1.2 टन प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन होता है, जबकि सिंचित क्षेत्र में यह औसत चार टन प्रति हेक्टेयर है। जो किसान प्रति हेक्टेयर चार टन का उत्पादन कर लेता है, उसमें खाद, पानी, बिजली, कीटनाशक और निराई-गुड़ाई के एवज में ज्यादा लागत आती है। लेकिन सरकार द्वारा निर्धारित या बाजार द्वारा तय कीमत से उसकी लागत भी वसूल नहीं हो पाती है।

किसानों की एक बड़ी समस्या यह है कि सरकार दो दर्जन फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी तो घोषित कर देती है, लेकिन उसे खरीदने की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं करती। आजादी के बाद से ही किसानों के सामने कर्ज, खाद, बिजली, पानी और उत्पादों के लागत मूल्य न मिलने जैसी तमाम समस्याएं रही हैं। लेकिन पिछले तीन दशकों से जलवायु परिवर्तन के असर से खेती चौपट होने की एक बहुत बड़ी समस्या और जुड़ गई। कई प्रदेशों में नीलगाय या छुट्टे पशुओं द्वारा लहलहाती फसल को बर्बाद करने की समस्या भी किसानों के लिए परेशानी का सबब बनती रही है।

सरकारी आंकड़ों को ही मानें तो भारत में औसतन हर साल 16 हजार से अधिक किसान आत्महत्या करते हैं। जिसमें 72 फीसद किसान छोटे जोत वाले और बैंक के कर्ज से दबे हुए रहते हैं। गैरसरकारी आंकड़े इससे कई गुना ज्यादा दिखाते हैं। जब फसल तैयार होकर घर आती है, तब उसका दाम धड़ाम से नीचे गिर जाता है। ऐसे में किसान के सामने जिंदगी निर्वाह का कोई आसरा नहीं दिखता। उसे लगता है कि परिवार को भूख से तड़पते देखने की अपेक्षा वह ही अपनी जिंदगी समाप्त कर ले।

केंद्र और राज्य सरकारें उपभोक्ताओं, बिचौलियों और व्यापारियों के हितों की चिंता बराबर करती दिखती हैं, लेकिन अन्नदाता के हितों पर उसकी कोई संवेदना नहीं जगती है। यों केंद्र सरकार विकसित देशों की तरह भारतीय कृषि के विकास की बात करती है, लेकिन जब किसानों को सबसिडी देने की बात आती है तो कदम पीछे खींच लेती है। यह जानते हुए कि विकसित देशों में किसानों को 2.10 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर तक सबसिडी दी जाती है। यही कारण है कि किसी भी विकसित देश का किसान दरिद्रता के कारण आत्महत्या के लिए मजबूर नहीं होता है। सवाल यह है कि क्या भारत के किसानों की हालत में वैसा सुधार हो पाएगा जैसा विकसित देशों के किसानों को हो चुका है?

गांवों से कस्बों, नगरों और शहरों की ओर पलायन बढ़ने के तमाम कारणों में खेती का हमेशा घाटे में होना और परिवार का गुजर-बसर न कर सकना शामिल है। इस पलायन को लेकर केंद्र सरकार और राज्य सरकारें चिंता तो जाहिर करती हैं, लेकिन जब किसान और किसानी के हितों की बात आती है, तब उस पर गौर करने के बजाय वायदे करने का काम करतीं देखी जाती हैं।

सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि आज भी 75 फीसद किसान परिवारों की आय 6,000 रुपए मासिक से कम है, सिर्फ 10 फीसद किसान परिवारों की आय 10 हजार रुपए या इससे कुछ ज्यादा है। यानी एक फीसद किसानों की आय 20 हजार नहीं है। जब बाढ़, अकाल, सूखा और पाले के चपेट में फसलें आ जाती हैं तो एक फीसद किसान की भी आय 5,000 हजार तक नहीं होती। ऐसे में किसान के सामने दो ही रास्ते होते हैं। वह घर-परिवार के साथ अपना पुश्तैनी खेती-बारी छोड़कर शहर जाकर कारखानों में कामकर परिवार को भुखमरी से बचाए या त्रासदी को झेलने के पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह दे। सवाल यह है कि बगैर किसानों की हालत सुधारे क्या देश की हालत सुधर सकेगी?


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