धर्म-अध्यात्म

इस गुरु पूर्णिमा पर पढ़ें कबीर के अनमोल दोहे

Tara Tandi
20 July 2021 10:03 AM GMT
इस गुरु पूर्णिमा पर पढ़ें कबीर के अनमोल दोहे
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सनातन परंपरा में आषाढ़ मास की पूर्णिमा का महत्व है

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | सनातन परंपरा में आषाढ़ मास की पूर्णिमा का महत्व है क्योंकि इस दिन गुरु पूर्णिमा का महापर्व मनाया जाता है. भारतीय संस्कृति में गुरु को ईश्वर से बड़ा स्थान दिया गया है क्योंकि गुरु ही हमें गोविंद का ज्ञान देते हैं. यही कारण है कि गुरु के प्रति समर्पित इस पावन पर्व को देश भर में बड़ी श्रद्धा एवं उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस साल गुरु पूर्णिमा 23 जुलाई 2021 को प्रात:काल 10:43 बजे से प्रारंभ होकर 24 जुलाई 2021 की सुबह 08:06 बजे तक रहेगी.

गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु की पूजा का विधान है. इस दिन शिष्य अपने गुरु की बड़े ही श्रद्धा भाव के साथ पूजा करके अपने सामथ्र्य के अनुसार गुरु दक्षिणा देता है. हमारे यहां गुरु–शिष्य की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है. गुरु हमेशा अपने शिष्य को जीवन की सही राह दिखाते हुए उसके लक्ष्य की प्राप्ति करवाता है. गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर आइए जानते हैं सद्गुरु कबीर की उस पावन वाणी का सार जो आज भी हमें सही दिशा दिखाने का काम कर रही है –

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

कबीर दास जी गुरु की महत्ता बताते हुए कहते हैं गुरु के समान कोई भी हितैषी नहीं होता है. गुरु की कृपा मिल जाये तो आम आदमी भी पल भर में देवता बन जाता है.

गुरु गोबिंद तौ एक है, दूजा यहु आकार।

आपा मेट जीवत मरै, तौ पावै करतार।।

सद्गुरु कबीर कहते हैं कि गुरु और गोविंद दोनों ही एक हैं. इनका केवल आकार यानि उनकी उपाधि अलग–अलग है. जो शिष्य अपने अहं को मिटाकर जीवित अवस्था में यानि शरीर के रहते ही विषय–वासना की आसाक्ति छोड़ने के लिए खुद को क्षीण कर देता है, वही वास्तव में ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है.

सतगुरु की महिमा अनंत, किया उपगार।

लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार।।

कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु की महिमा अपार है. गुरु के द्वारा किए गए उपकारों की कोई सीमा नहीं है. उसने मेरे अनंत ज्ञान चक्षु खोल दिए हैं और इस प्रकार वे मुझे लगातार परम ब्रह्म का साक्षात्कार कराते रहते हैं.

गुरु तो ऐसा चाहिए, शिष सों कछु न लेय।

शिष तो ऐसा चाहिए, गुरु को सब कुछ देय।।

कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु को हमेशा निष्काम, निर्लोभी और संतोषी होना चाहिए. उसे शिष्य से कभी भी कुछ लेने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि जहां गुरु लोभी और शिष्य से कुछ लेने की कामना करता है, वहां पर गुरुत्व की गरिमा घट जाती है. लेकिन इससे परे शिष्य को हमेशा अपने आप को गुरु को सर्वस्व समर्पण करने के लिए तैयार रहना चाहिए, तभी उसे गुरु से ज्ञान की प्राप्ति हो सकेगी.

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