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जनता से रिश्ता बेवङेस्क | महात्मा विदुर की पत्नी का नाम पारसंवी था. पारसंवी का भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति प्रेम था.महात्मा विदुर हस्तिनापुर के मंत्री होने के साथ साथ आदर्श भगवद्भक्त, उच्च कोटि के साधु और स्पष्टवादी थे. यही कारण था कि दुर्योधन उनसे सदा नाराज ही रहा करता था और समय असमय उनकी निन्दा करता रहता था. धृतराष्ट्र और भीष्म पितामह से अनन्य प्रेम के कारण वे दुर्योधन द्वारा किये जाते अपमान को सहर्ष स्वीकार कर लेते थे.
हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री होने के बाद भी उनका रहन सहन एक सन्त की ही तरह था. श्रीकृष्ण में उनकी अनुपम प्रीति थी. इनकी धर्मपत्नी पारसंवी भी परम साध्वी थीं. भगवान श्रीकृष्ण जब दूत बनकर संधि प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर पधारे, तब दुर्योधन ने उनके संधि प्रस्ताव को अस्वीकार करने के उपरांत उन्हें रात्रि विश्राम और भोजन आदि करने को कहा. भाव रहित दुर्योधन का यह आतिथ्य श्रीकृष्ण ने अस्वीकार कर दिया. कारण पूछने पर श्रीकृष्ण ने कहा हे दुर्योधन! किसी का आतिथ्य स्वीकार करने के तीन कारण होते हैं. भाव, प्रभाव और अभाव अर्थात तुम्हारा ऐसा भाव नहीं है जिसके वशीभूत तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार किया जाए. तुम्हारा ऐसा प्रभाव भी नहीं है जिससे भयभीत होकर तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार किया जाए और मुझे ऐसा अभाव भी नहीं है जिससे मजबूर होकर तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार किया जाए. इसके बाद श्रीकृष्ण वहां से प्रस्थान कर गए.
दुर्योधन के महल से निकल कर वे महात्मा विदुर के आश्रम रूपी घर पर पहुंचे. महात्मा विदुर उस समय घर पर नहीं थे तथा पारसंवी नहा रही थीं. द्वार से ही श्रीकृष्ण ने आवाज दी द्वार खोलो, मैं श्रीकृष्ण हूं और बहुत भूखा भी हूं. पारसंवी ने जैसे ही श्रीकृष्ण की पुकार सुनी तो भाव के वशीभूत तुरन्त वैसी ही स्थिति में दौड़ कर द्वार खोलने आ गयीं.
उनकी अवस्था को देख श्रीकृष्ण ने अपना पीताम्बर पारसंवी पर डाल दिया. प्रेम दीवानी पारसंवी को अपने तन की सुध ही कहां थी, उसका ध्यान तो सिर्फ इस पर था कि द्वार पर श्रीकृष्ण हैं और भूखे हैं. पारसंवी श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर अन्दर खींचते हुए ले आईं. श्रीकृष्ण की क्षुधा शान्त करने के लिए उन्हें क्या खिलाएं यही कौतूहल उसके मस्तिष्क में था.
इसी प्रेमोन्मत्त स्थिति में उसने श्रीकृष्ण को उल्टे पीढ़े पर बैठा दिया. दौड़ कर पारसंवी अन्दर से श्रीकृष्ण को खिलाने के लिए केले ले आयीं. श्रीकृष्ण के प्रेमभाव में वह इतनी मग्न थीं कि केले छील छील कर छिलके श्रीकृष्ण को खाने के लिए दिये जा रही थीं.
श्रीकृष्ण भी पारसंवी के इस अनन्य प्रेम के वशीभूत हो केले के छिलके खाने का आनन्द ले रहे थे. तभी महात्मा विदुर आ गए. वे कुछ देर तो अचम्भित होकर खड़े रहे, फिर उन्होंने पारसंवी को डांटा, तब उसे ध्यान आया और वह पश्चाताप करने के साथ ही अपने मन की सरलता से श्रीकृष्ण पर ही नाराज होकर उनको उलाहना देने लगी.
छिलका दीन्हे स्याम कहं, भूली तन मन ज्ञान,खाए पै क्यों आपने, भूलि गए क्यों भान,
भगवान इस सरल वाणी पर हंस दिए. भगवान ने कहा, विदुर जी आप बड़े बेसमय आए, मुझे बड़ा ही सुख मिल रहा था. मैं तो ऐसे ही भोजन के लिये सदा अतृप्त रहता हूं. अब विदुर जी भगवान को केले का गूदा खिलाने लगे. भगवान ने कहा, विदुर जी आपने केले तो मुझे बड़ी सावधानी से खिलाए, पर न मालूम क्यों इनमें छिलके जैसा स्वाद नहीं आया. ये सुनकर विदुर की पत्नी की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी क्योंकि वो समझ गईं कि भगवान सिर्फ भाव के भूखे होते हैं.