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20 सितंबर से पितृ पक्ष शुुरू, दिया गया श्राद्ध पितरों को कैसे मिलता है? जानें
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। यह प्रश्न मन में आना स्वाभाविक रहता है किस श्राद्ध में दी गई अन्नादि सामग्रियां पितरों को कैसे मिलती हैं क्योंकि अपने अनेकानेक कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद जीव को भिन्न-भिन्न गति प्राप्त होती है। कोई देवता बन जाता है, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई अन्य जानवर, कोई वृक्ष या कोई औषधि आदि आदि। श्राद्ध में दिए गए छोटे से छोटे पिंड से हाथी का पेट कैसे भर सकता है ? देवता अमृत से तृप्त होते हैं, पिंड से उन्हें कैसे तृप्ति मिलेगी ? इन प्रश्नों का शास्त्र में स्पष्ट उत्तर दिया गया है कि नाम, गोत्र के सहारे विश्वदेव एवं अग्निष्वात आदि दिव्य पितर हव्य-कव्य को पितरों को प्राप्त करा देते हैं।
यदि पिता देव योनि को प्राप्त हो गए हो तो दिया गया श्राद्ध उन्हें वहां अमृत होकर प्राप्त हो जाता है। मनुष्य योनि में हो तो अन्न रूप में तथा पशु योनि में हों तो उन्हें दिया गया श्राद्ध तृण रूप में प्राप्ति होता है। इसी प्रकार नाग योनियों में वायु रूप में, यक्ष योनियों में पान रूप में तथा अन्य योनियों में उन्हें श्राद्ध वस्तु भोग जनक तृप्तिकर पदार्थों के रूप में प्राप्त होकर अवश्य तृप्त करती है।
जिस प्रकार गौशाला में भूली माता का बछड़ा किसी न किसी प्रकार ढूंढ लेता ही है, उसी प्रकार मंत्र श्राद्ध वस्तु को जातकों के प्राणी के पास किसी न किसी प्रकार पहुंचा ही देता है। नाम, गोत्र, हृदय की श्रद्धा एवं उचित संकल्पपूर्वक दिए गए पदार्थों को भक्ति पूर्वक उच्चारित मंत्र उनके पास पहुंचा देता है। जीव चाहे सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।
ब्राह्मण भोजन से भी श्राद्ध की पूर्ति
सामान्यतः श्राद्ध की दो प्रक्रिया है पहला पिंडदान और दूसरा ब्राह्मण भोजन। मृत्यु के बाद जो लोग देवलोक या पित्र लोक में पहुंचते हैं वह मंत्रों के द्वारा बुलाए जाने पर उन-उन लोकों से तक्षण अपने श्राद्ध देश में आ जाते हैं और निमंत्रित ब्राह्मण के माध्यम से भोजन कर लेते हैं। सूक्ष्मग्राही होने से भोजन के सूक्ष्म कणों के सुगंध मात्र से उनका भोजन हो जाता है, वह तृप्त हो जाते हैं। अथर्ववेद में भी कहा गया है कि ब्राह्मणों को भोजन कराने से वह पितरों को प्राप्त हो जाता है।
पितरों के लिए कहा गया है कि यह अपने कर्म वश अंतरिक्ष में वायवीय शरीर धारणकर रहते हैं। अंतरिक्ष में रहने वाले इन पितरों को श्राद्धकाल आ गया है यह सुनकर ही तृप्ति हो जाती है। वह मन की गति से अपने अपने श्राद्धदेश-कुल में आ जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ भोजन कर तृप्त हो जाते हैं। इनको सब लोग इसलिए नहीं देख पाते हैं क्योंकि इनका शरीर वायुरूप होता है।
मनुस्मृति में भी कहा गया है कि श्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मणों में पितर गुप्तरूप से निवास करते हैं। प्राणवायु की भांति उनके चलते समय साथ-साथ चलते हैं और बैठते समय बैठते हैं। श्राद्धकाल में निमंत्रित ब्राह्मणों के साथ ही प्राणरूप में पितर आते हैं और उन ब्राह्मणों के साथ ही बैठकर भोजन करते हैं। मृत्यु के पश्चात पितर सूक्ष्म शरीर धारी होते हैं इसलिए इनको कोई देख नहीं पाता।
शतपथ ब्राह्मण में भी कहा गया है कि सूक्ष्म शरीर धारी होने के कारण पितर मनुष्यों से छिपे हुए होते हैं। अतएव सूक्ष्म शरीर धारी होने के कारण ये जल,अग्नि तथा वायु प्रधान होते हैं। इसीलिए लोकांतर में उन्हें आने जाने में उन्हें कोई रुकावट नहीं होती। इसीलिए श्राद्धकाल आने पर सभी प्राणियों को अपने पितरों की प्रसन्नता के श्रद्ध-तर्पण अवश्य करना चाहिए।