धर्म-अध्यात्म

Paramhans Swami Adgadanand ji

HARRY
29 April 2023 5:50 PM GMT
Paramhans Swami Adgadanand ji
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परमसत्य की राह पर चलना सिखाया।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | परमहंस स्वामी अड़गड़ानन्द जी। इस मानव सभ्यता एवं चराचर जगत को भारत के महान मनीषियों की अद्भुत देन है, – परम सत्य की खोज, जिसे हम परमात्मा, ईश्वर आदि भिन्न-भिन्न नामावली से परिभाषित करते हैं। भौतिक जगत की सीमित सीमा से परे असीम सुख, परमशान्ति और अक्षय समृद्धि का भण्डार महापुरुषों ने अपने भीतर खोज निकाला और संसार सागर को इस परम कल्याणकारी परमसत्य की राह पर चलना सिखाया।
ऐसे महापुरुष हर युग में प्रकट होते आये हैं। जगत कल्याण के लिए वे देश, धर्म, जाति की सीमाओं से ऊपर उठ कर जीव जगत के कल्याण का पथ प्रशस्त करते रहे हैं। जनमानस में धर्म के नाम पर प्रचलित रूढ़ियों को नष्ट कर सरलता पूर्वक सत्य को प्रतिपादित कर देते हैं । उनकी अकारण की करुणा से जनमानस धन्य हो जाता है। ऐसे ही महापुरुषों की परम्परा का नाम है परमहंस स्वामी अड़गड़ानन्दजी महाराज। आप श्री स्वामी परमानन्दजी महाराज (परमहंसजी) अनुसुइया चित्रकूट के शिष्य हैं ।
वस्तुतः आध्यात्मिक विभूतियां परिवार, जाति, धर्म, क्षेत्र इत्यादि सीमाओं से बहुत परे होती हैं। परन्तु फिर भी परिचय की प्रचलित रीति का निर्वहन करने के लिए इन्हीं का सहारा लेने की विवशता को स्वीकार करना पड़ता है। भगवान श्री कृष्ण के वंशज यदुवंशी क्षत्रिय हैं । इन्हीं की एक शाखा भाटी राजपूत हैं। राजस्थान में जोधपुर जिले के अन्तर्गत ओसियाँ एक प्राचीन नगर है।
परमहंस स्वामी अड़गड़ानन्द जी
ओसियाँ में सुन्दर तराशे हुए पत्थरों से निर्मित अनेक मंदिर पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व ओसियाँ रावलोत भाटियों का एक गांव था। इसी गांव के निवासी स्वर्गीय श्री जब्बरसिंह जी के तीन पुत्र थे। इनमें गुलाबसिंह जी ईश प्रेरणा से भगवद् पथ पर अग्रसर हुए जो अब संन्यास परम्परानुसार स्वामी अड़गड़ानन्दजी महाराज के नाम से विख्यात हैं।
आपका जन्म सन् 1933 में इनके ननिहाल ग्राम नांदिया जिला जोधपुर में हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण कर आप सेना में भर्ती हो गये। ग्रामीण परिवेश में पला, भोला-भाला नवयुवक सेना के अनुशासित वातावरण की भेंट चढ़ गया। कुछ वर्ष सैनिक जीवन व्यतीत किया परन्तु होनी को कुछ और मंजूर था। सेना सेवा से समय पूर्व ही मुक्ति पाकर परमसत्य की खोज में भटकना प्रारम्भ कर दिया।
परमहंस स्वामी अड़गड़ानन्द जी
परमहंस स्वामी अड़गड़ानन्द जी
ऋषिकेश, हरिद्वार के घाटों से होता हुआ, घनघोर जंगलों और पहाड़ों की खाक छानने लगा, सत्य की तलाश में। उधर विधि के द्वारा पूर्व नियोजित योजनानुसार सद्गुरु परमहंसजी को अनुभव में महसूस हुआ कि कोई अधिकारी साधक है और पार पाने के लिए विकल है। मगर रास्ता नहीं मिल रहा है। यहाँ कबीर का यह कथन सटीक लगता है :
जल में बसे कुमोदिनी, चन्दा बसे आकाश । जो है जाकों भावता, सो ताही के पास ॥ आपके गुरु महाराज परमहंस परमानन्दजी के नाम से सुविख्यात संत जो से चित्रकूट के समीप सती अनुसुइया के पावन बीहड़ जंगल में मंदाकिनी नदी के किनारे दिगम्बर अवस्था में विराजते थे।
वहाँ वे ईश्वर पथ के कुछेक पथिकों को अपने मार्गदर्शन में मुक्ति मार्ग पर बढ़ा रहे थे। ऐसे क्षण में गुलाबसिंह नामक नवयुवक भी किसी प्रेरणा के वशीभूत होकर वहाँ पहुंचता है। आगे का वृत्तान्त उन्हीं के शब्दों में, “ऋषिकेश, हरिद्वार, पंजाब और चित्रकूट में जितने भी महात्माओं के दर्शन किये और सान्निध्य में मैं आया, उनमें महाराज जी ने सहज ही मेरे अन्तःकरण को सबसे अधिक आकर्षित किया।
उनका आश्रम, उनकी बोली, भाषा, सादगी, आत्मीयता, प्रसन्न मुद्रा सब कुछ मुझे भायी। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मुझे मेरी मंजिल मिल गयी हो। मुझे आत्मिक शान्ति मिली। भजन तो मुझे करना था, भजन में गुरु के हाथ का यंत्र बन कर रहा जाता है इसका मुझे भान नहीं था। महाराज जी ने प्रश्न किया, क्यूं साधु तो नहीं होना है ? मैं सावधान हो गया। यदि मैं कहूं कि हाँ होना है तो कदाचित मुझे किन्हीं रूढ़ियों में ना उलझा दें !
साधु तो मुझे होना था किन्तु श्रद्धा होते हुए भी मन में कुतर्क था कि जैसा महापुरुष को होना चाहिये उसके योग्य मैं हूँ भी कि नहीं ! कुछ गोलमाल उत्तर दिया, “महाराज जी कहे तो, नहीं लगता कि मैं साधु बनूंगा” ऐसा कह कर मैं चुप हो गया और धीरे से हटकर एक ओर चला गया कि कहीं पुनः कुछ पूछ न बैठें ? महाराज जी ने अन्य साधकों को सम्बोधित कर क्षेत्रीय भाषा में कहा, “देख रहे हो ? यह अब भी कनई काटत है।
मैं देखे हूँ ए के यहीं रहे का है। हो भगवान मौ के बताये है।” इस प्रकार एक ईश्वर उपलब्ध, दुर्लभ महापुरुष के चरणों में आप पहुंच गये। रूढ़ि, ढोंग दिखावे से कोसों दूर घनघोर जंगल में परमसत्य खोज की विधि पा गये। वही विधि जो वेद उपनिषद् से लेकर महात्मा बुद्ध, महावीर, कबीर और संसार के प्रत्येक महापुरुष ने बताई ।
अब पूर्व की सारी पहचान, नाम, जाति, क्षेत्र सभी शनैः शनैः लुप्त होने लगी और जुट गये अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने में ।अनुसुइया के उन बीहड़ और घनघोर जंगलों में जहाँ आज भी जाने और रहने में भय लगता है। लग्न और निष्ठा से जुट गये और नया साधक नाम पाया अड़गड़ानन्द ।
किसी भक्त ने आपके गुरुजी से पूछा कि अड़गड़ नाम का अर्थ क्या होता है ? परमहंस जी ने बताया, अड़गड़ का अर्थ है कठिन, जटिल, दुरूह और अगम। ईश्वर पथ पर वही श्रेष्ठ माना जाता है जो अड़गड़ हो। फिर संत कबीर का एक भजन गुनगुनाया-
अड़गड़ मत है पूरा का ।
यहाँ नाहीं काम अधूरों का ॥
जैसा नाम मिला उसी के अनुरूप रही आपकी साधना । एकान्त में कई कई दिनों, महीनों बिना कुछ खाये पिये लगे ही रहते। यह सत्य की भूख और प्यास भौतिक भूख और प्यास को मिटा ही डालती है। अनेक बार जंगल में विचरण करते चरवाहे आपको बेहोश अवस्था में पोटली में उठा कर गुरु आश्रम लाते थे ।
गुरु महाराज ट-डपट कर खाने-पीने के लिए बाध्य करते थे। साथ ही मन ही मन अपने सद् शिष्य की लग्न और निष्ठा से प्रसन्न भी होते। कई वर्ष कठोर तपस्या में बीते । साधना के दौरान किसी से कोई सम्पर्क नहीं।
आस पास के अंचल के जन मानस में आप कौतूहल का विषय बने और आपके प्रति चर्चायें चलने लगी कि यह परमहंस जी महाराज का बेकल शिष्य, जो अपनी सुध-बुध खो बैठा है। भक्ति की पराकाष्ठा में तन-मन विस्मृत हो ही जाता है। संसारी जन भला कैसे अनुमान लगा सकते हैं, उस अवस्था का ।
पूर्ण लग्न और निष्ठा से की गई वर्षों की घोर साधना एवम् सद्गुरु की असीम कृपा और आशीर्वाद का फल अवश्य संभावी था। सारे बंधनों से मुक्त हो आप वही हो गये जो सम्पूर्ण संसार का उद्गम और गन्तव्य है। पूरी हुई परमसत्य की शोध और खोज । भक्तमति मीरां के शब्दों में पायोजी मैं तो रामरतन धन पायो वस्तु अमोलक दी मेरे सत्गुरु कृपा करि अपनायो, पायोजी.
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