धर्म-अध्यात्म

रथ सप्तमी पर करें सूर्य चालीसा का पाठ, पूर्ण होगी सभी मनोकामना

Subhi
4 Feb 2022 2:58 AM GMT
रथ सप्तमी पर करें सूर्य चालीसा का पाठ, पूर्ण होगी सभी मनोकामना
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हर वर्ष माघ माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को रथ सप्तमी मनाई जाती है। इस प्रकार, 7 फरवरी, 2022 को रथ सप्तमी है। इस दिन भगवान भास्कर की पूजा-उपासना की जाती है।

हर वर्ष माघ माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को रथ सप्तमी मनाई जाती है। इस प्रकार, 7 फरवरी, 2022 को रथ सप्तमी है। इस दिन भगवान भास्कर की पूजा-उपासना की जाती है। धार्मिक मान्यता है कि रथ सप्तमी के दिन सूर्यदेव का प्रादुर्भाव हुआ है। भूमंडल पर ऊर्जा का एकमात्र स्त्रोत सूर्य देव हैं। उन्हें समस्त जगत का पालन हार भी कहा जाता है। उनकी कृपा तीनो लोक पर बनी रहती है। रथ सप्तमी को अचला सप्तमी, सूर्यरथ सप्तमी, आरोग्य सप्तमी आदि नामों से भी जाना जाता है। सूर्यदेव की विधिवत पूजा करने से व्यक्ति को सुख, समृद्धि और संतान की प्राप्ति होती है। अगर आप भी अपने जीवन में सुख, शांति और समृद्धि पाना चाहते हैं, तो रथ सप्तमी को विधिपूर्वक सूर्य देव की पूजा-उपासना करें। साथ ही पूजा के समय सूर्य चालीसा का पाठ जरूर करें-

दोहा:

कनक बदन कुंडल मकर, मुक्ता माला अंग।

पद्मासन स्थित ध्याइए, शंख चक्र के संग।।

चौपाई:

जय सविता जय जयति दिवाकर, सहस्रांशु सप्ताश्व तिमिरहर।

भानु, पतंग, मरीची, भास्कर, सविता, हंस, सुनूर, विभाकर।

विवस्वान, आदित्य, विकर्तन, मार्तण्ड, हरिरूप, विरोचन।

अम्बरमणि, खग, रवि कहलाते, वेद हिरण्यगर्भ कह गाते।

सहस्रांशु, प्रद्योतन, कहि कहि, मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि।

अरुण सदृश सारथी मनोहर, हांकत हय साता चढ़‍ि रथ पर।

मंडल की महिमा अति न्यारी, तेज रूप केरी बलिहारी।

उच्चैश्रवा सदृश हय जोते, देखि पुरन्दर लज्जित होते।

मित्र, मरीचि, भानु, अरुण, भास्कर, सविता,

सूर्य, अर्क, खग, कलिहर, पूषा, रवि,

आदित्य, नाम लै, हिरण्यगर्भाय नमः कहिकै।

द्वादस नाम प्रेम सो गावैं, मस्तक बारह बार नवावै।

चार पदारथ सो जन पावै, दुख दारिद्र अघ पुंज नसावै।

नमस्कार को चमत्कार यह, विधि हरिहर कौ कृपासार यह।

सेवै भानु तुमहिं मन लाई, अष्टसिद्धि नवनिधि तेहिं पाई।

बारह नाम उच्चारन करते, सहस जनम के पातक टरते।

उपाख्यान जो करते तवजन, रिपु सों जमलहते सोतेहि छन।

छन सुत जुत परिवार बढ़तु है, प्रबलमोह को फंद कटतु है।

अर्क शीश को रक्षा करते, रवि ललाट पर नित्य बिहरते।

सूर्य नेत्र पर नित्य विराजत, कर्ण देश पर दिनकर छाजत।

भानु नासिका वास करहु नित, भास्कर करत सदा मुख कौ हित।

ओठ रहैं पर्जन्य हमारे, रसना बीच तीक्ष्ण बस प्यारे।

कंठ सुवर्ण रेत की शोभा, तिग्मतेजसः कांधे लोभा।

पूषा बाहु मित्र पीठहिं पर, त्वष्टा-वरुण रहम सुउष्णकर।

युगल हाथ पर रक्षा कारन, भानुमान उरसर्मं सुउदरचन।

बसत नाभि आदित्य मनोहर, कटि मंह हंस, रहत मन मुदभर।

जंघा गोपति, सविता बासा, गुप्त दिवाकर करत हुलासा।

विवस्वान पद की रखवारी, बाहर बसते नित तम हारी।

सहस्रांशु, सर्वांग सम्हारै, रक्षा कवच विचित्र विचारे।

अस जोजजन अपने न माहीं, भय जग बीज करहुं तेहि नाहीं।

दरिद्र कुष्ट तेहिं कबहुं न व्यापै, जोजन याको मन मंह जापै।

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