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धर्म-अध्यात्म
नए साल का नए बोध: करियर में तरक्की चाहिए तो जीवन में लाएं यह बदलाव, ऐसे रहे तैयार
Deepa Sahu
3 Jan 2022 7:04 AM GMT
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हमें बचपन से ही सिखाया जाता है कि अगर जीवन में सफल होना है.
आचार्य रूपचंद्र । हमें बचपन से ही सिखाया जाता है कि अगर जीवन में सफल होना है, तो असफल लोगों को नहीं, सफल लोगों की ओर देखो। उनकी कहानी जानो और उनके रास्ते पर चलने की कोशिश करो। जाहिर है, सफलता हमेशा प्रेरित करती है और मनोबल देती है। इसलिए ज्यादातर बच्चे पढ़ाई के दौरान ही अपनी दिशा खोजने लगते हैं। सब पर डॉक्टर, इंजीनियर, इंटीरियर डिजाइनर, एक्टर, आईएएस, आईपीएस या और कुछ बड़ा बनने की धुन सवार हो जाती है। मतलब हमारे मन में हमारा लक्ष्य चक्कर काटने लगता है। या तो हम उसकी गिरफ्त में आ जाते हैं या फिर वह हमारी गिरफ्त में आ जाता है। दोनों ही स्थितियों में हमारे सपने आंखों पर ठहर जाते हैं। यह सब एक प्रक्रिया के तहत होता है। लेकिन हर चीज का सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष होता है।
सफलता की सौ प्रतिशत गारंटी कभी नहीं होती है। कुछ लोग आगे भागने में कामयाब हो जाते हैं और कुछ बीच रास्ते में ही रुक जाते हैं। जो सफल होते हैं, वे अपनी दुनिया बसा लेते हैं लेकिन अपनी असफलता से परेशान होने वाले ज्यादातर लोग अपने जीवन को कोसने लग जाते हैं। कुछ तो गलत कदम भी उठा लेते हैं। उस समय वे सफल हुए लोगों के संघर्ष और मेहनत को भूल जाते हैं, सिर्फ अपने सपनों को अपने जेहन में रखते हैं। वहां तक पहुंचने के लिए जिस धैर्य, लगन, अनुशासन और विनयशीलता की जरूरत होती है, उसके बारे में सोचने तक के लिए तैयार नहीं होते। दरअसल वे शिक्षा का मतलब सुशिक्षित होना नहीं, किसी भी हाल में मनचाहे स्थान को पा लेना मान बैठे हैं।
हमें यह याद रखना चाहिए कि अनुशासन और विनय का संबंध ऐसा है, जिसमें एक के बिना दूसरा होता ही नहीं है। दोनों आधारशिलाएं हैं जीवन की। इनके बिना शिक्षा, राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक व्यवस्था और अध्यात्म-साधना भी सफल नहीं हो सकती। संयम जहां वृत्तियों का रूपांतरण होकर भीतर की ओर बहने वाली धारा है, वहीं अनुशासन और विनय उस धारा को सुरक्षा देने वाले तट हैं, जिनके बीच बहती हुई साधना की सरिता उस अनंत विराट स्वरूप को प्राप्त कर लेती है। अध्यात्म साधना की दृष्टि से संयम और अनुशासन का अपरिहार्य महत्व तो है ही, राष्ट्र और समाज के संदर्भ में भी इनका मूल्य कम नहीं है। जिस समाज में जितनी मात्रा में संयम और अनुशासन का विकास होगा, वहां शासन उतना ही कम आवश्यक होगा। जहां अनुशासन टूटता है, वहीं शासन का उदय होता है। अनुशासन अंत:करण से सिद्ध फूल है जो कोमल भाव का प्रतिनिधि है जबकि शासन बाहर से कठोरतापूर्वक आरोहण है।
संसार के इतिहास में यह सत्य सदा सप्रमाण साकार रहा है कि शासन के आधार पर समाजों और राष्ट्रों को बदलने की कोशिशों ने हिंसा को ही विविध विकृत रूपों में प्रस्तुत किया है, जबकि स्थायी और प्रभावकारी परिवर्तन अनुशासन से हुआ है। आगम सूत्रों में गुरु के समीप रहकर अनुशासनपूर्वक संयम की आराधना करने के निर्देश सर्वत्र मिलते हैं। यानी गुरु के समीप, उसके निर्देशानुसार साधना करने वाला शिष्य संयम के पाठ पर अग्रसर होते हुए धर्म को जीवन में साकार कर उस स्थिति तक पहुंच जाता है, जहां से वह आत्मचेतना की ज्योति में सिद्धि के पथ पर स्वयं आगे बढ़ने में समर्थ हो पाता है। अगर वह अहंकार, क्रोध, छल या जिद के कारण, गुरु शिक्षा ग्रहण नहीं करता, उसके अनुशासन में संयम-पथ पर अग्रसर नहीं होता तो वह विनाश से बच नहीं सकता।
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