धर्म-अध्यात्म

धन, वैभव, यश या कीर्ति, जो इसे त्याग दे वही संत है

Neha Dani
11 July 2023 11:40 AM GMT
धन, वैभव, यश या कीर्ति, जो इसे त्याग दे वही संत है
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धर्म अध्यात्म : धन, वैभव, सम्मान, यश या कीर्ति की कामना किसे नहीं होती? संसार के इन्हीं प्रलोभनों से बचने के लिए मनुष्य साधु-संत तक बन जाता है। लेकिन इनमें से कीर्ति नाम का प्रलोभन उसका पीछा निरंतर करता रहता है। इसील धन, वैभव, यश या कीर्ति छोड़कर संत बनने के बाद भी कीर्ति उसका पीछा करता है, जो इसे त्याग दे वही संत धन, वैभव, सम्मान, यश या कीर्ति की कामना किसे नहीं होती? संसार के इन्हीं प्रलोभनों से बचने के लिए मनुष्य साधु-संत तक बन जाता है। लेकिन इनमें से कीर्ति नाम का प्रलोभन उसका पीछा निरंतर करता रहता है। इसीलिए कीर्ति की कामना से मुक्त व्यक्ति को ही सच्चा संत कहा गया है, सच्चे साधक, संत मान-सम्मान और पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा क्यों करने लगे। यदि भ्रमवश करते हैं तो वह उनके साधन में विघ्न रूप होने के कारण उनके लिए महान हानिकर है। भक्त और शिष्यों को संत और गुरु के लिए विलास-सामग्री जुटाने में आत्मसंयम से काम लेना चाहिए; क्योंकि विलास-सामग्री से संत का यथार्थ सम्मान कभी नहीं होता।संत भाव की प्राप्ति में प्रधान विघ्न है—‘कीर्ति की कामना।’ स्त्री-पुत्र, घर-द्वार, धन-ऐश्वर्य और मान-सम्मान का त्याग कर चुकनेवाला पुरुष भी कीर्ति की मोहिनी में फंस जाता है। कीर्ति की कामना का त्याग तो दूर रहा, स्थूल मान-प्रतिष्ठा का त्याग भी बहुत कठिन होता है। जिस मनुष्य की साधना धारा चुपचाप चलती है, उसको इतना डर नहीं है; परंतु जिसके साधक होने का लोगों को पता चल जाता है, उसकी क्रमश ख्याति होने लगती है। फिर उसकी पूजा-प्रतिष्ठा आरंभ होती है। स्थान-स्थान पर उसका मान-सम्मान होता है, और इस पूजा-प्रतिष्ठा तथा मान-सम्मान में जहां उसका तनिक भी फंसाव हुआ कि पतन आरंभ हो जाता है। इंद्रियां प्रबल हैं ही।
मान-सम्मान तथा पूजा-प्रतिष्ठा में जहां इंद्रियों को आराम पहुंचानेवाले भोग भक्तों द्वारा समर्पित होकर इंद्रियों को उपभोगार्थ मिलने लगे, वहीं उनकी भोग-लालसा जाग्रत होकर और प्रबल हो उठती है। इंद्रियां मन को खींचती हैं, मन बुद्धि को—और जहां बुद्धि अपने परम लक्ष्य परमात्मा को छोड़कर विषय-सेवन-परायण इंद्रियों के अधीन हो जाती है, वहीं सर्वनाश हो जाता है।संत भाव की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करनेवाले साधकों को बहुत ही सावधानी के साथ ख्याति, मान-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा आदि से अपने को बचाए रखना चाहिए। इन सबको अपने साधन मार्ग में प्रधान विघ्न समझकर इनका विषवत त्याग करना चाहिए। यह बात याद रखनी चाहिए कि विषयी पुरुषों की मनोवृत्ति से साधक की मनोवृत्ति सर्वथा विपरीत होती है। विषयी धन-ऐश्वर्य, मान-यश आदि के प्रलोभन में पड़ा रहता है, तो साधक इनसे अलिप्त रहने में ही अपना कल्याण समझता है।ऐसे साधकों के भक्तों और अनुयायियों को भी चाहिए कि वे संत सेवा, गुरु भक्ति के नाम पर भ्रमवश इंद्रियों की भूख बढ़ानेवाले मोहक भोग उनके चरणों पर चढ़ाकर उन्हें पवित्र, मर्यादित संत जीवन से गिराने की चेष्टा न करें।
संत तथा गुरु का सम्मान और उनकी पूजा करना शिष्य का परम कर्तव्य है और उसके लिए लाभदायक भी है; परंतु उनकी सच्ची पूजा उसी कार्य में है, जो उनके लिए हानिकर नहीं है और जो आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होने के कारण हृदय से उनका इच्छित है। जो मान-सम्मान और पूजा-प्रतिष्ठा के लिए ही संत का बाना धारण करता है, वह तो संत ही नहीं है। इसलिए सच्चे साधक, संत मान-सम्मान और पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा क्यों करने लगे। यदि भ्रमवश करते हैं तो वह उनकी साधना में विघ्न रूप होने के कारण उनके लिए महान हानिकर है।भक्त और शिष्यों को संत और गुरु के लिए विलास-सामग्री जुटाने में आत्मसंयम से काम लेना चाहिए; क्योंकि विलास-सामग्री से संत का यथार्थ सम्मान कभी नहीं होता। बल्कि त्यागी महात्मा को भोग पदार्थ देना या भोग पदार्थ के लिए उनके मन में लालच उत्पन्न करने की चेष्टा करना तो उनका अपमान या तिरस्कार ही करना है। शरशय्या पर पड़े हुए वीर शिरोमणि भीष्म के लटकते हुए मस्तक के लिए रूई का तकिया नहीं शोभा देता, उनके लिए तो अर्जुन के तीक्ष्ण बाणों का तकिया ही प्रशस्त और योग्य है। इसी प्रकार संत-महात्माओं का यथार्थ सम्मान उनके आज्ञा पालन में, उनके आदर्श चरित्र के अनुकरण में और उनके वेष के अनुरूप ही उनकी सेवा करने में है।
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