धर्म-अध्यात्म

माता सीता केवल एक नारी मात्र नहीं है, अपितु साक्षात् आदि शक्ति का ही रूप है

Manish Sahu
16 July 2023 3:06 PM GMT
माता सीता केवल एक नारी मात्र नहीं है, अपितु साक्षात् आदि शक्ति का ही रूप है
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धर्मं अध्यात्म: श्रीराम जी के शुभचिंतक दूत, संसार में कहीं एक आधा थोड़ी न हैं। श्रीहनुमान जी को तो लग रहा था, कि इस पूरी लंका नगरी में, एक मैं ही श्रीराम जी का परम दूत हूँ। लेकिन उन्हें क्या पता था, कि राक्षसियों के इस विशाल झुँड में भी, प्रभु की एक अन्नय उपासक विद्यमान थी। श्रीहनुमान जी अभी भी माँ सीता जी के समक्ष प्रक्ट नहीं हो रहे थे। रावण तो क्रोध में लाल पीला था ही। और ऐसे में वह, माता सीता जी को प्रताडि़त करने के हर हथकंडे अपना रहा था। यह तो प्रभु ने अपनी चेरी, रानी मंदोदरी को खड़ा कर दिया, अन्यथा रावण अपने जीवन का वह पाप कर बैठता, जिसका प्रायश्चित वह जन्मों-जन्मों की तपस्या करके भी नहीं कर सकता था। खैर! रावण जोर से पैर पटकता हुआ, यह धमकी देता हुआ चला जाता है, कि एक माह का समय और दिए जा रहा हूँ। एक माह तक सभी राक्षसियां मिल कर इसे समझायो। अन्यथा उसके पश्चात मैं सीता को अपनी इस तलवार से मृत्यु के घाट उतार दूंगा-
‘मास दिवस महुँ कहा न माना।
तौ मैं मारबि काढि़ कृपाना।।
रावण ने मानों सभी उपस्थित राक्षसियों को खुली छूट दे दी, कि वे श्रीसीता जी को कैसे भी प्रताडि़त करें, उन्हें कोई कुछ नहीं पूछेगा। बस किसी न किसी प्रकार से श्रीजानकी जी मेरे अनुकूल होनी चाहिए। बस क्या था, राक्षसियों को तो मानों श्रीसीता जी को धमकाने व डराने का ‘लाइसेंस’ प्राप्त हो गया था। निश्चित ही ऐसे व्यवहार का निर्वाह करना, मायावी जीव स्वभाव होता है। किसी जीव को साँत्वना, प्रेम व स्नेह देना हो, तो व्यक्ति अपने पैर पीछे खींच लेता है। लेकिन किसी को दुखी व प्रताडि़त करना हो, तो अज्ञानी जीव, उसी क्षण दूल्हा बन बैठता है। रावण की अनुमति को, राक्षसियों ने तो मानों अपनी खुन्नस निकालने का अवसर मान लिया था। आप सोच रहे होंगे, कि राक्षसियों को श्रीसीता जी से भला क्या बैर था, कि वे श्रीसीता जी को डराने धमकाने लगी। वास्तव में सभी को यह ईर्ष्या थी, कि रावण श्रीसीता जी वाला आकर्षण, हमसे से किसी के प्रति क्यों नहीं रखता। क्या राक्षसियों में से कोई कम सुंदरियां हैं, जो रावण इस वनवासियों के पीछे लग गया। राक्षसियां श्रीजानकी जी को, मानों स्वयं और लंका के पटरानी पद के मध्य बाधा मान कर चल रही थी। और रावण के जाने के पश्चात, सभी राक्षसियों को, श्रीजानकी जी को डराने में मानों एक अजीब सा सुकून मिल रहा था-
‘भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद
सीतहि त्रस देखावहि धरहिं रुप बहु मंद।।’
लेकिन श्रीराम जी के शुभचिंतक दूत, संसार में कहीं एक आधा थोड़ी न हैं। श्रीहनुमान जी को तो लग रहा था, कि इस पूरी लंका नगरी में, एक मैं ही श्रीराम जी का परम दूत हूँ। लेकिन उन्हें क्या पता था, कि राक्षसियों के इस विशाल झुँड में भी, प्रभु की एक अन्नय उपासक विद्यमान थी। जिसका नाम त्रिजटा था। वह उन सभी राक्षसियों को, जो माता सीता जी को प्रताडि़त कर रही थी, उन्हें लताड़ लगाते हुए बोली, कि यह तुम लोग क्या पाप कमा रही हो। रावण तो चलो संस्कार व स्वभाव वश ही, नारी का सम्मान करना नहीं समझता। एक पतिव्रता स्त्री का धर्म क्या होता है, भला उसे क्या पता, कम से कम हम नारियों को तो नारी जाति के यश व गौरव को समझना चाहिए। तुम सबको शायद यह भी ज्ञान नहीं, कि श्रीराम जी तो स्वयं प्रभु हैं। और श्रीसीता जी उनकी लीला में, उनका केवल साथ देकर अपनी सेवा निभा रही हैं। जिन्हें तुम सब एक अबला व पीडि़त मानने की गलती कर रही हो, वे श्रीसीता जी भी केवल एक नारी मात्र नहीं हैं, अपितु साक्षात आदि शक्ति का ही रुप हैं। रावण ने श्रीसीता जी के संबंध में क्या कहा, इसपे मत जाओ। क्योंकि उसे क्या पता, उसका तो बुद्धि विवेक हरा जा चुका है। लेकिन तुम सब तो वैसी नहीं हो। हम सबकी अशोक वाटिका में, श्रीसीता जी के आस पास अगर नियुत्तिफ़ हुई है, तो यह हम पर ईश्वर की अपार कृपा है। हमें अवसर मिला है, कि हम श्रीजानकी जी की सेवा कर पायें। इसलिए मूढ़ता त्यागो, और श्रीसीता जी के सेवा में संलग्न हो जाओ-
‘त्रिजटा नाम राच्छसी एका।
राम चरन रति निपुन बिबेका।।
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना।
सीतहि सेइ करहु हित अपना।।’
इससे भी बड़ी बात, जो कि आप लोगों में से किसी को अभी पता नहीं। वह यह कि रात्रि स्वपन में प्रभु ने मुझे वह सब कुछ दिखा दिया, जो अब आगे होने वाला है। त्रिजटा की बात सुन कर सभी राक्षसियां उत्सुक्ता से त्रिजटा से उस स्वपन के बारे में पूछने लगी। त्रिजटा ने बताया, कि रात्रि मेरे स्वप्न में एक बहुत बलवान व बड़ा भारी बँदर लंका में घुस आया। वह वानर संपूर्ण दैवीय गुणों से संपन्न, अथाह बल व समस्त दिव्य प्रभावों से सुसज्जित है। लंका के बड़े से बड़े योद्धा भी उसके आगे बौने साबित हो रहे हैं। फिर जो उस वानर ने किया, उसे सुन तो आप सभी राक्षसियां, अपने दाँतों तले अँगुलियां दबा लेंगी। राक्षसियां बोली, कि हमें शीघ्र बतायो, कि उस वानर ने ऐसा क्या परम विचित्र किया। तो त्रिजटा ने कहा, कि दईया रे दईया! उस वानर का ऐसा अदुभूत पराक्रम था, कि उसने अकेले ही, संपूर्ण लंका नगरी को अग्नि की लपटों में लपेट दिया। केवल इतना ही नहीं। राक्षसों की सारी सेना भी मार गिराई। और रावण की तो आप लोग पूछो ही मत। वह पूरी लंका नगरी में नंगा घूम रहा है। और उसे गधे पर स्वार करके, सब और उसका जुलूस निकाला जा रहा है। उसके दसों के दसों सिर मुंडे हुए हैं, और पूरी की पूरी बीस भुजायें भी काट दी गई हैं-
‘सपने बानर लंका जारी।
जातुधान सेना सब मारी।।
खर आरुढ़ नगन दससीसा।
मुंडित सिर खंडित भुज बीसा।।’
बात यहीं समाप्त हो, तो फिर भी चल जाये। मैंने तो यह भी देखा कि लंका के राज सिंहासन पर श्रीविभीषण जी सुशोभित हो चुके हैं। और श्रीराम जी अपनी परम प्रिय श्रीजानकी जी को लेकर विदा हो रहे हैं। जैसे ही यह स्वपन, समस्त राक्षसियों ने सुना, तो वे सब डर गईं। तभी कसी राक्षसी ने सोचा कि पता नहीं यह कब होना है, और कब नहीं। और स्वपन का क्या है। स्वपन भी भला कोई सत्य हुआ करते हैं। तो त्रिजटा ने तुरन्त कहा-
‘यह सपना मैं कहउँ पुकारी।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।
तासु बचन सुनि ते सब डरीं।
जनकसता के चरनन्हि परीं।।’
त्रिजटा ने कहा कि इस कोई भी, इस भ्रम में मत रह जाना, कि यह सब यथार्थ में घटित होगा भी अथवा नहीं। मेरा विश्वास मानों, यह सब कोहराम बस कुछ ही दिनों में घटित होने वाला है। राक्षसियां सशंकित भी नहीं हो पा रही थी। क्योंकि समस्त राक्षसियों को यह भलिभाँति ज्ञान था, कि त्रिजटा के स्वपन सदैव ही सत्य सिद्ध होते हैं। फिर यह स्वपन असत्य कैसे मान लें। यह पक्ष विचार कर, सब राक्षसियां भयभीत हो गई, और श्रीसीता जी के श्रीचरणों में नत्मस्तक हो गई। देखते ही देखते, प्रभु ने ऐसी लीला रची, कि जो राक्षसियां, अभी कुछ ही क्षण पहले, श्रीसीता जी को शत्रु भाव से देख रहीं थी, वहीं अब सब राक्षसियां, माता सीता को जगत जननी के रुप में निहार पा रही हैं। वाह! क्या लीला है प्रभु की। सागर इस पार बैठे बैठे, वे किसी को भी शत्रु से मित्र, पलों में ही बना दिए जा रहे हैं।
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