सम्पादकीय

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Subhi
16 Sep 2021 1:00 AM GMT
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सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर केंद्र सरकार को स्पष्ट संकेत दे दिया है कि न्यायपालिका के कामकाज में केंद्र सरकार की दखलअंदाजी या मनमानी बिल्कुल नहीं चलने वाली।

सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर केंद्र सरकार को स्पष्ट संकेत दे दिया है कि न्यायपालिका के कामकाज में केंद्र सरकार की दखलअंदाजी या मनमानी बिल्कुल नहीं चलने वाली। अदालतें संविधान के तहत काम करती हैं और केंद्र सरकार उन्हें अपने ढंग से चलाने का प्रयास नहीं कर सकती। ताजा मामला जजों के खाली पदों पर भर्तियों को लेकर है। देश के प्रमुख और अपीलीय न्यायाधिकरणों में ढाई सौ पद खाली हैं। उनमें भर्ती के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने नामों की सूची केंद्र के पास भेजी थी।

केंद्र सरकार ने पहले तो उस सूची को लंबे समय तक लटकाए रखा, फिर अदालत ने याद दिलाया तो उस सूची में से कई नामों को छोड़ दिया गया। कुछ ही नाम मुख्य सूची से लिए गए, कई नाम प्रतीक्षा सूची से ले लिए गए। फिर यह भी शर्त लगा दी गई कि नियुक्त किए गए न्यायाधीशों का कार्यकाल केवल एक साल का होगा। इस पर स्वाभाविक ही प्रधान न्यायाधीश ने केंद्र सरकार को आड़े हाथों लिया और कहा कि जिन नामों को स्वीकृति दी गई है, उन्हें देख कर साफ लगता है कि उनका चुनाव 'पसंद के आधार' पर किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने केंद्र से पूछा है कि उसने अनुशंशित सूची से नामों का चयन क्यों नहीं किया, प्रतीक्षा सूची से नाम क्यों लिए गए, इसका कारण स्पष्ट करें।
यह केंद्र सरकार के लिए अदालत की बड़ी फटकार है। पिछले कई सालों से शीर्ष अदालत पर आरोप लगते रहे हैं कि वह केंद्र सरकार के मन माफिक काम करती रही है। अनेक संवेदनशील मामलों में अदालत के फैसले केंद्र सरकार के पक्ष में गए, उससे और उसकी साख पर सवाल उठने शुरू हो गए थे। वर्तमान प्रधान न्यायाधीश उस साख को लौटाना चाहते हैं और कई मौकों पर स्पष्ट कर चुके हैं कि सरकार किसी भी अदालत को अपने ढंग से नहीं चला सकती। कई मामलों में उन्होंने केंद्र को असहज करने वाली स्थिति में डाला है। जजों की नियुक्ति संबंधी मामला भी उन्हीं में एक है। छिपी बात नहीं है कि हमारे यहां आबादी के अनुपात में अदालतों में जजों की नियुक्ति नहीं होती। उसके बावजूद अगर अदालतों में न्यायाधीशों के स्वीकृत पद बड़ी संख्या में खाली रहेंगे, तो मामलों के निपटारे में मुश्किलें पेश आएंगी।
पहले ही अदालतों पर मुकदमे का बोझ बहुत अधिक है। इसलिए लंबे समय से मांग की जाती रही है कि अदालतों में जजों के खाली पदों को शीघ्र भरा जाए। अब जब शीर्ष अदालत ने देश भर में साक्षात्कार वगैरह की प्रक्रिया पूरी करने के बाद योग्य उम्मीदवारों का चयन कर लिया है, तो निहित स्वार्थ के चलते केंद्र सरकार के उनकी नियुक्ति लटकाए रखने पर अदालत की तल्खी स्वाभाविक है।
उच्च न्यायालयों में भी खाली पदों पर भर्ती प्रक्रिया को लेकर केंद्र सरकार ने इसी प्रकार अपनी पसंद को ऊपर रखा था। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुशंशित नामों को दरकिनार कर प्रतीक्षा सूची से अपनी पसंद के न्यायाधीशों को तरजीह दी थी। इस तरह कई न्यायाधीश कनिष्ठ बना दिए गए थे। केंद्र को यह अधिकार अवश्य है कि वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुशंशित नामों में से कुछ नामों को छोड़ सकता है। मगर इसका यह अर्थ कतई नहीं कि वह इस बात का ध्यान रखते हुए न्यायाधीशों का चयन करे कि कौन उसके मनमाफिक साबित हो सकता है। इस तरह अदालतों से निष्पक्षता और कानून सम्मत कार्यपद्धति की अपेक्षा धूमिल होती है। सर्वोच्च न्यायालय की केंद्र को फटकार से न्याय व्यवस्था में शुचिता का भरोसा कुछ और बढ़ा है।


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