धर्म-अध्यात्म

जीवन सार: परमात्मा को पाने के लिए हमें अपने अंदर करने होंगे सबसे पहले ये बदलाव

Deepa Sahu
11 July 2021 2:26 PM GMT
जीवन सार: परमात्मा को पाने के लिए हमें अपने अंदर करने होंगे सबसे पहले ये बदलाव
x
ईश्वर का अर्थ क्या है? क्या यह कहीं बैठा कोई व्यक्ति है?

ईश्वर का अर्थ क्या है? क्या यह कहीं बैठा कोई व्यक्ति है? परमात्मा कहीं बैठा नहीं है। हम जो सोचते हैं, जो विचारते हैं, केवल वही ईश्वर नहीं है। ईश्वर का अर्थ है, इस अखिल ब्रह्मांड में फैला विस्तार और उस विस्तार में छिपी हरेक पूर्णता। वह न तो स्थिर है, न ही वह गतिमान है। वह केवल वैकुंठ, कैलाश या फिर किसी और लोक में ही नहीं है, बल्कि वह हर जगह है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्मतम है, विशाल से विशालतम है। जो पौधे हैं, जो सूर्य, चांद और तारे हैं, जो नदियां हैं, पहाड़ हैं, जंगल और जीव-जंतु हैं- यह सब उसका ही विस्तार है। पक्षियों में वही तो कलरव करता है, वृक्षों में फल-फूल और सुगंध भी वही है। चहुं ओर वही हवाओं में बह रहा है, उसी का शोर सागर में लहर बनकर घूमता है। आकाश के अनंत विस्तार में भी वही है। हम खुद उस लहर के एक सूक्ष्मतम रूप हैं, बस इसका बोध हो जाए, इतना ही काफी है।

हमको परमात्मा नहीं दिखते हैं क्योंकि न तो हम झुकते हैं, न रुकते हैं और न ही हम देखते हैं। झुकने के लिए भाव चाहिए, रुकने के लिए चेतना चाहिए और देखने के लिए अंतरात्मा की पवित्रता चाहिए। जिस दिन यह तीनों हमारे अंदर आ गया, उस दिन सृष्टि के सभी तत्वों में परमात्मा का नृत्य दिखेगा। हर एक जड़-चेतन में परमात्मा का संगीत सुनाई पड़ेगा। सृष्टि की हर एक दिशा से परमात्मा हमारी ओर ही आ रहे हैं मगर हम उनकी नहीं सुनते।
सांसारिक कुशलता से परिपूर्ण व्यक्ति सदैव अपने को भरना चाहता है। कभी धन से, कभी वासना से, कभी ज्ञान से, कभी तृष्णा से और कभी प्रभु नाम से। कुशलता के वशीभूत होकर हम अगर अपने को भर लेंगे, तो ईश्वर का काम कठिन हो जाएगा। बुद्ध जब तक निर्वाण के लिए प्रयास करते रहे, तब तक कष्ट, परेशानी और असफलता ही मिली। जिस दिन उन्होंने अपने आप को छोड़ दिया, स्वयं से स्वयं को खाली किया, उसी दिन वह भर गए। ईश्वरीय अनुग्रह का साक्षात्कार सहज ही प्राप्त हो गया।
शांतिपूर्ण जीवन के लिए जरूरी है कि हम चेतना को अगले स्तर तक ले जाएं। अपने विकास के लिए जरूरी है कि हम ईश्वर को कोई रूप या चेतना या मानवीय सत्ता में स्वीकार न करें, क्योंकि वह इन सबसे अलग एक दिव्य अनुभूति हैं, एक शाश्वत जीवन, एक वर्तमान हैं। इतिहास में मिनांडर और बौद्ध गुरु नागसेन (नागार्जुन) की एक महान चर्चा का विवरण मिलता है। राजा और दार्शनिक के बीच के संवाद में कर्म, नाम, रूप, निर्वाण, पुनर्जन्म, आत्मा आदि पर चर्चा की गई है। मिनांडर पूछते हैं कि बुद्ध कहां हैं? नागसेन कहते हैं कि वह परम निर्वाण को प्राप्त हो गए। मिनांडर पूछते हैं कि क्या निर्वाण के बाद अस्तित्व रहता है? गुरु कहते हैं कि क्या शांत हो चुकी अग्नि में लपट शेष रहती है? क्या उसे देखा जा सकता है? मिनांडर कहते हैं कि तब बुद्ध नहीं हैं? इस पर बौद्ध गुरु कहते हैं कि अग्नि का अस्तित्व समाप्त हो सकता है? नहीं। उसी प्रकार बुद्ध हर जगह हैं। बुद्धत्व की संभावनाएं हर समय और हर जगह हैं। हर जीव की चेतना में बुद्धत्व है। हमारी चेतना का जागरण ही उनका साक्षात्कार कर सकता है।

मयंक मुरारी

Next Story