धर्म-अध्यात्म

आइए जानते हैं ,इस निराकार शक्ति को ईश्वर क्यों कहा जाता है?

Deepa Sahu
31 Aug 2021 11:49 AM GMT
आइए जानते हैं ,इस निराकार शक्ति को ईश्वर क्यों कहा जाता है?
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ईश्वर क्या है? वह कैसे मिलेगा? ऐसे प्रश्न हमें अकसर भटकाते हैं।

ईश्वर क्या है? वह कैसे मिलेगा? ऐसे प्रश्न हमें अकसर भटकाते हैं और सही मार्ग मिलना कई बार कठिन लगता है। लेकिन योगी कहते हैं कि वह ईश्वर, जो हर जगह विराजमान है, उसे ढूंढ़ने के लिए एक यात्रा अंदर की करनी होगी। बाहर से अंदर की इस यात्रा में सहायक होगा योग। योग की सहायता से आप प्रभु में आश्रय पा सकेंगे।

योगी कहते हैं कि ईश्वर और आनंद शब्द में शायद ही कोई अंतर है। फिर योगी कहता है, 'भगवान क्या है? वह आनंद है।' इस परमपिता का कार्यात्मक पक्ष यह है कि सब कुछ उसी से आता है और पुन: सब कुछ उसी ईश्वर में चला जाता है। ईश्वर सृष्टिकर्ता है, वह संचालक है, और वह परोपकारी संहारक है।
ईश्वर क्या है? संचालक के रूप में वह नियंत्रक भी है। किसी मशीन के संचालक का उस मशीन पर नियंत्रण होना चाहिए। और यह नियंत्रक केवल एक साधारण मैकेनिक नहीं है, वह एक महान जादूगर है, क्योंकि वह अपने दिमाग में सब कुछ बनाता है। जादूगर अपने दिमाग में बहुत सी चीजें बनाता है, और दर्शक कहते हैं- ओह, वाह क्या जादू दिखाया है। लोग उस जादू में ही खो जाते हैं। लेकिन असल में इन दर्शकों को माया से भटकाया जा रहा है। माया ऐसी कि दर्शकों का मानसिक रुझान सृजित वस्तुओं की ओर जाता है न कि जादूगर की ओर। लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि वे निर्मित वस्तुएं अस्थायी प्रकृति की हैं। जादूगर सच और स्थायी है।
अब फिर से प्रश्न कि भगवान क्या है? योगी कहते हैं, जिसके पास गूढ़ शक्तियां, सभी मनोगत शक्तियां, सभी क्षमताएं हैं, वह ईश्वर है। जब तक किसी के पास सभी मनोगत शक्तियां नहीं हैं, तब तक कोई ब्रह्मांड को कैसे नियंत्रित कर सकता है? मनोगत शक्तियों की संख्या आठ है। वह जो इन सभी मनोगत शक्तियों का स्वामी है, उसे संस्कृत में ईश्वर के रूप में जाना जाता है।
अब, प्रश्न है कि उस शक्ति को ईश्वर क्यों कहा जाता है? वह सब कुछ देख सकता है और कर सकता है। वह किसी भी अंग की मदद के बिना कहीं भी जा सकता है। भगवान कौन है, इस बारे में योगी द्वारा एक और स्पष्टीकरण है। वह जो कर्मों और प्रतिक्रियाओं से अप्रभावित रहता है, जिसे आश्रय की आवश्यकता नहीं है, वह जो सबका आश्रय है- वह ईश्वर है। योगी द्वारा एक और व्याख्या यह है कि ब्रह्मांड असंख्य अणुओं-परमाणुओं का संग्रह है। लेकिन उस सबके सर्वोच्च नियंत्रक भगवान हैं। आपके पास केवल दो आंखें हैं, और वे आंखें केवल वहीं काम कर सकती हैं, जहां बाहरी दुनिया में प्रकाश तरंगें होती हैं। जहां प्रकाश तरंगों की कमी है, वहां आप नहीं देख सकते। लेकिन उसके पास अनंत आंखें हैं, और वे सभी आंखें भीतर से काम कर रही हैं, क्योंकि उसके बिना कुछ भी नहीं है। सब कुछ उसके भीतर है। क्या आप अपनी मानसिक तस्वीर देखने के लिए बाहरी आंखों पर निर्भर हैं? नहीं। आपके लिए दो दुनिया हैं, आंतरिक और बाहरी। लेकिन ईश्वर के संदर्भ में सब कुछ आंतरिक है।
आप उसके दिमाग में हैं, और जो कुछ भी आप देख रहे हैं, जो कुछ भी कर रहे हैं, जो कुछ भी करने जा रहे हैं, सब कुछ उसके महान दिमाग के भीतर किया जा रहा है। वह आपसे कह सकता है-'ओह, मेरे बच्चे, तुमने ऐसा पाप क्यों किया?' आप यह नहीं कह सकते- 'नहीं पिता, मैंने कोई पाप नहीं किया।' क्योंकि आप उसके मन में हैं। वह बिना किसी आंख के आंतरिक रूप से देखता है, क्योंकि आप उसकी मानसिक रचना हैं, आप उसके मन के भीतर हैं। वह सर्वव्यापी है; वह हर जगह है। रेत के एक दाने की गति उसके लिए उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि एक मनुष्य।
पिता हमेशा आपके साथ हैं। और उनकी सर्वव्यापकता के कारण एक फायदा और एक नुकसान है। क्या फायदा है? फायदा यह है कि परमपिता हमेशा आपके साथ हैं, आप कभी अकेले नहीं हैं। और नुकसान यह है कि वह हमेशा तुम्हारे साथ है, और इसलिए तुम्हारे लिए कुछ भी अप्रिय, अवांछनीय कुछ भी करना बहुत मुश्किल है। यही कठिनाई है। ब्रह्मांड उससे घिरा हुआ है। तुम जो कुछ भी करते हो, तुम्हारा करना उसके द्वारा देखा जाता है। आप गुप्त रूप से नहीं सोच सकते।
अब, अंतज्र्ञान अभ्यास क्या है? योगाभ्यास क्या है? इसका उद्देश्य सिर्फ माया के प्रभाव को दूर करना है। यह क्रियात्मक सिद्धांत, माया का प्रभाव, एक शैतानी जंजीर की तरह है। शैतानी जंजीर को योग साधना के माध्यम से दूर किया जाता है। जब योगी परमपिता के निकट सम्पर्क में आता है, तो भगवान कहते हैं- ओह, मेरे बच्चे, एक व्यक्ति के लिए इस माया के प्रभाव को दूर करना बहुत मुश्किल है। माया अजेय है, लेकिन जिसने मुझमें आश्रय लिया है, जिसने स्वयं को मुझमें विराजमान किया है, जिसने मेरी गोद में आश्रय लिया है, वह निश्चित रूप से इस माया के प्रभाव से परे हो जाएगा।'
जब तक आप उस परमपिता के लिए निहित विश्वास और सच्चा प्रेम विकसित नहीं कर लेते, तब तक आप उनके साथ एक नहीं होंगे, आप इस माया से बंधे रहेंगे। तब लोगों को लगने लगता है कि उन्हें दुनिया से प्यार करना चाहिए।
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