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कुशग्रहणी अमावस्या आज, जानिए पूजा-अनुष्ठान में कुश धारण करने का महत्व
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। हिंदू पंचांग के अनुसार, भाद्रपद की अमावस्या को कुशग्रहणी अमावस्या व पिठोरी अमावस्या कहा जाता है। इस साल पिठोरी अमावस्या 7 सितंबर, मंगलवार को मनाई जाएगी। मान्यता है कि इस दिन व्रत और अन्य पूजन कार्य करने से पितरों की आत्मा को शान्ति प्राप्त होती है। शास्त्रों के अनुसार अमावस्या तिथि के स्वामी पितृदेव होते हैं, इसीलिए इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण और दान-पुण्य का बहुत महत्व होता है। धार्मिक दृष्टि से इस अमावस्या को कुश ग्रहण करने एवं पूजा में कुश के प्रयोग का विशेष महत्व है।
क्यों कहते हैं कुशग्रहणी अमावस्या
इस दिन वर्ष भर पूजा, अनुष्ठान या श्राद्ध कराने के लिए नदी, मैदानों आदि जगहों से कुशा नामक घास उखाड़ कर घर लाते हैं। धार्मिक कार्यों में इस्तेमाल की जाने वाली यह घास यदि इस दिन एकत्रित की जाए तो वह वर्ष भर तक पुण्य फलदायी होती है। बिना कुशा घास के कोई भी धार्मिक पूजा निष्फल मानी जाती है। इसलिए कुशा घास का उपयोग हिंदू पूजा पद्धति में प्रमुखता से किया जाता है। इस दिन तोड़ी गई कोई भी कुशा वर्ष भर तक पवित्र मानी जाती हैं। अत्यंत पवित्र होने के कारण इसका एक नाम पवित्री भी है।
क्यों करते हैं इसका प्रयोग
वेदों और पुराणों में कुश घास को पवित्र माना गया है। इसे कुशा, दर्भ या डाभ भी कहा गया है। आमतौर पर सभी धार्मिक कार्यों में कुश से बना आसान बिछाया जाता है या कुश से बनी हुई पवित्री को अनामिका अंगुली में धारण किया जाता है। अथर्ववेद, मत्स्य पुराण और महाभारत में इसका महत्व बताया गया है। माना जाता है कि पूजा-पाठ और ध्यान के दौरान हमारे शरीर में ऊर्जा पैदा होती है। कुश के आसन पर बैठकर पूजा-पाठ और ध्यान किया जाए तो शरीर में संचित उर्जा जमीन में नहीं जा पाती। इसके अलावा धार्मिक कार्यों में कुश की अंगूठी इसलिए पहनते हैं ताकि आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए। रिंग फिंगर यानी अनामिका के नीचे सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है। सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश मिलता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। पूजा-पाठ के दौरान यदि भूल से हाथ जमीन पर लग जाए, तो बीच में कुशा आ जाएगी और ऊर्जा की रक्षा होगी। इसलिए कुशा की अंगूठी बनाकर हाथ में पहनी जाती है।
कुशा क्यों है इतनी पवित्र
मत्स्य पुराण के एक प्रसंग के अनुसार जब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध करके पृथ्वी को पुनः स्थापित किया। उसके बाद उन्होंने अपने शरीर पर लगे पानी को झाड़ा तब उनके शरीर से बाल पृथ्वी पर गिरे और कुशा के रूप में बदल गए। इसके बाद कुशा को पवित्र माना जाने लगा।एक अन्य पौराणिक प्रसंग के अनुसार जब सीता जी पृथ्वी में समाई थीं, तो श्री रामजी ने जल्दी से दौड़ कर उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु उनके हाथ में केवल सीता जी के केश ही आ पाए। यह केशराशि ही कुशा के रूप में परिणत हो गई।
कुशा घास को तोड़ने का विधान
कुशा को निकलते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इसको किसी भी औजार से ना काटा जाये, इसे केवल हाथों से ही निकालना चाहिए और कुशा घास खंडित नहीं होनी चाहिए। अर्थात घास का अग्रभाग टूटा हुआ नहीं होना चाहिए। कुशा एकत्रित करने के लिए सूर्योदय का समय सर्वश्रेष्ठ माना गया है। दाहिने हाथ से एक बार में ही कुशा को निकालें।