धर्म-अध्यात्म

जानिए क्यों हुई थी कर्बला की जंग?

Tara Tandi
9 Aug 2022 5:03 AM GMT
जानिए क्यों हुई थी कर्बला की जंग?
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आज मुहर्रम महीने (Muharram Month) की 10वीं तारीख यौम-ए-आशूरा (Ashura) है.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। आज मुहर्रम महीने (Muharram Month) की 10वीं तारीख यौम-ए-आशूरा (Ashura) है. इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोग काले रंग के कपड़े पहनते हैं और कर्बला की जंग में शहादत देने वालों के लिए मातम मनाते हैं. आज के दिन शिया समुदाय ताजिया निकालता है, मजलिस पढ़ता है और दुख व्यक्त करता है, जबकि सुन्नी समुदाय के लोग रोजा रखते हैं और नमाज अदा करते हैं. मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला माह है, जो रमजान की तरह ही पवित्र माना जाता है. आइए जानते हैं क्या है आशूरा का महत्व और कर्बला की जंग का इतिहास.

यौम-ए-आशूरा का महत्व
मुहर्रम की यौम-ए-आशूरा को इराक के कर्बला शहर में पैगंबर हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन ने इस्लाम की रक्षा के लिए अपने 72 साथियों के साथ कुर्बान हो गए थे. इस वजह से हर साल मुहर्रम की 10वीं तारीख को हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत को याद करके मातम मनाया जाता है.
क्यों हुई थी कर्बला की जंग?
पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी के रूप में यजीद के नाम की घोषणा उसके पिता ने की, लेकिन इसको पैगंबर साबह के परिवार ने स्वीकार नहीं किया. मान्यता न मिलने के कारण पैगंबर हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन और यजीद के बीच यही जंग के आगाज का कारण बना.
यजीद स्वयं को खलीफा मान बैठा था और अपने अनुसार ही सभी लोगों को धार्मिक गतिविधियों को करने का दबाव डालता था. हजरत इमाम हुसैन ने यजीद के बातों को मनाने से साफ इंकार कर दिया. हजरत इमाम हुसैन अपने परिवार और 72 साथियों के साथ कर्बला पहुंच गए.
यजीद शासक के रूप में बेहद ही क्रूर व्यक्ति था. इमाम हुसैन को अपने अनुसार चलने के लिए यजीद ने कई प्रकार से दबाव डाले, लेकिन वह सफल नहीं हो पाया. यजीद को हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों के कर्बला में होने की सूचना मिल गई थी.
उसने उन पर दबाव बनाने के लिए उनका पानी बंद करवा दिया. इमाम हुसैन भी उसके आगे झुकने वाले नहीं थे. इस बीच मुहर्रम की 10वीं तारीख यौम-ए-आशूरा को यजीद ने इमाम हुसैन और उनके साथियों पर हमला करा दिया.
इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों ने हिम्मत के साथ यजीद की सेना का मुकाबला किया. इस्लाम की रक्षा के लिए इमाम हुसैन अपने परिवार और 72 साथियों के साथ कुर्बान हो गए. इसके घटना के बाद से हर साल यौम-ए-आशूरा को मुस्लिम समुदाय मातम मनाता है.
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