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फाइल फोटो
हम लोगों के लिए पांच तरह का स्वास्थ्य जरूरी है।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | हम लोगों के लिए पांच तरह का स्वास्थ्य जरूरी है। ये हैं शरीर, परिवार, समाज, मन और आत्मा का स्वास्थ्य। इनके अस्वस्थ रहने के कारण हैं- मोह, संशय, संदेह, शंका और भ्रम। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जरूरी है कि उसे बहुत भोग न दिए जाएं। शरीर का महत्व समझ लेना चाहिए। ये बड़ा वरदान है ईश्वर का। बहुत बड़ा उपहार है। वह स्थूल रूप में स्वस्थ रहे, यह आवश्यक है। तथागत बुद्ध कहते है अष्टांग योग से शरीर स्वस्थ्य रहेगा। तन तंदुरुस्त रखने के लिए सम्यक आहार जरूरी है। बुद्ध कहते है सम्यक व्यायाम भी जरूरी है। तीसरा बुद्ध का नहीं, महर्षि रमण का सूत्र है, और वह है कम बोलना। आदमी जितना बोलता है, उतना शरीर दुर्बल होता है। जितना जरूरी है, उतना ही बोलना चाहिए। यानी, सम्यक बोला जाए, वरना शरीर अस्वस्थ होगा।
असीम विहार, असीम व्यवहार, असीम आहार.. इससे शरीर बिगड़ता है। इनके अलावा जिन पांच से शरीर बिगड़ता है, वे हैं- दूसरों पर शंका, संदेह, संशय, मोह और भ्रम। ये सबके समापन की व्यवस्था मानस ने दी है- सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ। आप कथा सुनते हैं, सत्संग करते हैं, मैं गाता हूं, ये सब अच्छा लगता है। हम सुख पा रहे हैं। यह सबका अनुभव है, लेकिन हम केवल इसी में गिरफ्तार न हो जाएं। हमारा परिवार के प्रति भी उत्तरदायित्व है। हम सुख पा रहे हैं तो उन्हें भी सुख दीजिए। परिवार में यदि कोई महारोग का भोग बन जाए तो हमारे शरीर पर भी असर होता है। परिवार में कोई बीमार हो तो दूसरे व्यक्ति के शरीर पर भी असर होता है। अगर बच्चों का विवाह नहीं हुआ है, अच्छा लड़का या लड़की नहीं मिली है, पढ़ाई ठीक से नहीं कर पाए हैं तो इन पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। हमें वैराग लेकर भगवान को नहीं पाना है। बल्कि हम जहां हैं, वहां रहकर भगवान को ऊपर से नीचे उतारना है। भगवान उतरते हैं। दशरथ के घर उतरे हैं, वासुदेव की जेल में उतरे हैं।
हम वैराग लेकर उन्हें ऊपर खोजने जाएं, यह भी एक गति है, लेकिन क्यों न हम एक एक पारिवारिक दायित्व पूरा करते-करते उन्हें नीचे बुला लें। हम नरसिंह मेहता नही है। हम मीरा और भर्तृहरि नहीं हैं। मनु और शतरूपा ने वैराग का पथ लिया तो भी परिवारिक दायित्व को पूरा किया। भजन का मतलब यह नहीं कि आप सबको नजरअंदाज करें, सबकी उपेक्षा करें। भजन में पारिवारिक स्वास्थ्य आवश्यक है। आत्मा की तंदुरुस्ती के विषय में मैं खुलासा कर दूं कि आत्मा बीमार नही है। मन बीमार हो सकता है, आत्मा कहां बीमार होती है। जैसे सूरज तंदुरुस्त है, लेकिन बादल से आवृत्त होने पर सूरज दिखना बंद हो जाता है। वैसे ही स्थिति हमारी आत्मा की है। जैन परंपरा कहती है कि आत्मा पर कई तरह के कशाय के बादल छा जाते हैं। इसी रूप में आत्मा अस्वस्थ नहीं हो सकती। आत्मा बूढ़ी नहीं हो सकती। शरीर जन्म लेता है, आत्मा जन्म नहीं लेती। ये तो सीधी-सी बात है।
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