धर्म-अध्यात्म

जानिए हज यात्रा को पूरा करने के लिए 5 दिन में क्या और कौन सी करते हैं रस्में

Tara Tandi
7 Jun 2022 5:04 AM GMT
Know what and what rituals do in 5 days to complete the Haj pilgrimage
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हज इस्लाम का एक अहम हिस्सा होने की वजह से मुसलमानों की आस्था जुड़ा है। इसलिए हर मुसलमान की चाहत होती है कि जीवन में मक्का-मदीना जाकर हज की रस्मों को जरूर पूरा करें

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। हज इस्लाम का एक अहम हिस्सा होने की वजह से मुसलमानों की आस्था जुड़ा है। इसलिए हर मुसलमान की चाहत होती है कि जीवन में मक्का-मदीना जाकर हज की रस्मों को जरूर पूरा करें। जिंदगी में एक बार मक्का-मदीना जाकर हज की अदायगी करना जरूरी होता है। हज इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक है। हज यात्रा पर निकलने के लिए रकम खर्च करनी पड़ती है। इसलिए हज सिर्फ उसी हालत में फर्ज माना जाता है जब कोई मुसलमान आर्थिक रूप से मजबूत हो। हज यात्रा में पांच रस्में होती हैं। इसी दौरान हज यात्रा भी होती है। हज लंबी और कठिन प्रक्रिया है। इस यात्रा में ऐसी रस्में होती हैं, जो क्रमबद्ध तरीके से पूरी की जाती है। अगर इन रस्मों में से एक भी पूरी न की जाए तो हज यात्रा पूरी नहीं मानी जाती। हज के लिए अहम पांच पड़ाव होते हैं। आइए जानते हैं क्या हैं हज के वो पांच पड़ाव।

कब से शुरू होता है हज
हज यात्रा इस्लामी चंद्र कैलेंडर के बारहवें और अंतिम महीने धू अल-हिज्जा के 8वें दिन पड़ता है। इस वर्ष हज 7 जुलाई, गुरुवार शाम से आरंभ होगी और 12 जुलाई मंगलवार को समाप्त होगी।
हज का महत्व
यह इस्लाम के पांच मूल स्तंभ में से एक है, साथ ही यह एक धार्मिक कर्तव्य है जिसे अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार पूरा करना हर उस मुस्लिम चाहे स्त्री हो या पुरुष का कर्तव्य है जो सक्षम शरीर होने के साथ साथ इसका खर्च भी उठा पाने में समर्थ हो।
हज के पांच पड़ाव
हज यात्री पहले दिन सुबह (फज्र) की नमाज पढ़ कर मक्का से 5 किलोमीटर दूर मीना पहुंचते हैं। हां हाजियों को अहराम पहनना होता है। यह एक खास लिबास होता है, जिसे पहन कर ही हज यात्रा करनी होती है। लिबास पूरा सफेद होता, जो सिला हुआ नहीं होता है। हज यात्रा के दौरान पुरुष सिले हुए कपड़े नहीं पहन सकते। मीना में हाजी पूरा दिन बिताते हैं, और यहां बाकी की चार नमाजें अदा करते हैं।
दूसरे पड़ाव के लिए हाजी दूसरे दिन मीना से लगभग 10 किलोमीटर दूर अराफात की पहाड़ी पहुंच कर यहां नमाज अदा करते हैं। मान्यता है कि जो हाजी अराफात की पहाड़ी पर नहीं जाते उनका हज अधूरा रह जाता है, इसलिए अराफात की पहाड़ी पर जाना जरूरी है। यहां पहुंच जायरीन तिलावत करते हैं। अराफात की पहाड़ी को जबाल अल-रहम भी कहा जाता है। कहते हैं पैगंबर हजरत मुहम्मद ने अपना आखिरी प्रवचन इसी पहाड़ी पर दिया था। सूर्य अस्त होने के बाद हाजी अराफात की पहाड़ी व मीना के बीच स्थित मुजदलफा जाते हैं। यहां हाजी आधी रात तक रहते हैं। जायरीन यहां से शैतान को मारने के लिए पत्थर जमा करते चलते हैं।
मुख्य हज बकरीद वाले दिन मनाई जाती है। वैसे तो इस दिन कुर्बानी होती है, लेकिन इससे पहले यात्री मीना जाकर शैतान को तीन बार पत्थर मरते हैं। ये पत्थर जमराहे उकवा, जमराहे वुस्ता व जमराहे उला जगहों पर बने तीन अलग-अलग स्तंभों पर मारे जाते हैं। इन्हीं तीनों जगहों पर हजरत इब्राहीम ने शैतान को तब कंकड़ मारे थे, जब उसने उन्हें बेटे की कुर्बानी देने जाते समय रोकने की कोशिश की थी। इसीलिए तीनों जगहों पर स्तंभ बनाए गए हैं और हाजी इन खंभों को शैतान का प्रतीक मान पत्थर बरसाते हैं। लेकिन इस दिन हाजी केवल सबसे बड़े स्तंभ को ही पत्थर मारते हैं। पत्थर मारने की रस्म अगले दिनों में दो बार और करनी होती है। कुर्बानी के बाद हज यात्री अपने बाल पूरी तरह कटवाते हैं, जबकि महिलाएं भी बाल बिलकुल छोटे करा देती हैं। इन रस्मों के बाद मक्का जाकर हज यात्री काबा के सात बार चक्कर लगाते हैं।
चौथे पड़ाव पर पुनः पत्थर मारने की रस्म होती है। यह रस्म पूरे दिन चलती है और हाज दोबार मीना पहुंच जमराहे उकवा, जमराहे वुस्ता व जमराहे उला जगहों पर बने स्तंभों को पत्थर मारते हैं। ये स्तंभ शैतान का प्रतीक माने जाते हैं। पत्थर सात-सात बार मारे मारे जाते हैं।
काबा
पांचवे दिन भी यही रस्म चलती है और दिन ढलने से पहले जायरीन मक्का के लिए रवाना हो जाते हैं। आखिरी दिन हाजी फिर से तवाफ़ की रस्म निभाते हैं और इसी के साथ हज यात्रा पूरी हो जाती है। तवाफ़ यानी काबे की सात परिक्रमा लगाई जाती हैं। इस रस्म के पूरा होते ही हज यात्रा पूरी मान ली जाती है।


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