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जो विज्ञ होकर भी अज बनकर जड़ पदार्थों से सीता जी का पता पूछे
हर वर्ष राम जन्मोत्सव मनाने का तात्पर्य है राम को वर्तमान बनाये रखना। हम राम के जन्मोत्सव को इस प्रकार मनाते हैं कि जैसे राम का जन्म अभी हुआ है। बधाइयां गाते हैं। बालक के रूप में उन्हें पालने में झुलाते हैं। यह है अतीत को वर्तमान करने की विधि। यह केवल ईश्वर में ही सामर्थ्य है, जो हर काल के लोगों को अपनी मधुर लीलाओं के द्वारा सुख दे सकें। जो रो भी सके, जो हंस भी सके। छोटा भी हो जाए, एक पग मे पूरा ब्रह्मांड नाप ले। जो सबको भवसागर से पार कराता हो, वह गंगा पार करने के लिए नाव मांगे। जो संकल्प से रावण को मार सकता हो, पर विभीषण से रावण के विनाश का उपाय पूछे। सब कुछ जानते हुए भी जो बंदरों के प्रयास को धन्य करने के लिए दसों दिशाओं में सीता जी की खोज के लिए सेना भेजे।
जो विज्ञ होकर भी अज बनकर जड़ पदार्थों से सीता जी का पता पूछे। वे ही परिपूर्ण राम हैं, जो सकल विरुद्ध धर्माश्रय हैं। जो भूत हैं, भविष्य भी, वही तो वर्तमान राम हैं। वर्तमान का सदुपयोग ही हमारी आस्तिकता है, वही राम की पूजा है। भगवान ने जन्म लेकर पहले माताओं को सुख दिया। फिर दशरथ जी को परमानंद और ब्रह्मानंद की अनुभूति हुई। ब्रह्मानंद ज्ञान विषयक है और परमानंद भक्ति विषयक है। गोस्वामी जी ने दोनों को जोड़कर यह सिद्ध करना चाहा कि ज्ञानी और भक्त दोनों को आनंद की आवश्यकता है और केवल राम ही ऐसे हैं, जो दोनों को परिपूर्ण आनंद दे सकते है। दशरथ जी ने अपने आनंद का विस्तार किया, सारी अयोध्या को सूचना दे दी। नगर में घर-घर बधावे बजने लगे :
गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
हरषवंत सब जहं तहं नगर नारि नर बृंद।।
अब यह सुख व्यक्ति से शुरू होकर प्रकृति तक चला गया। सरयू जी का जल बढ़ने लगा। उसमें अधिक पवित्रता आने लगी। वृक्षों में फल आ गये। सरोवर भर गये। न अधिक धूप, ना अधिक शीत। ऋतु वातानुकूलित हो गई। यह है राम का स्वस्वरूप, जो कौशल्या रूपी पूर्व दिशा से उदित होकर सारे संसार को प्रकाशित करने वाला हो गया। श्रीराम के जन्म से संसार को जो सुख मिला, उस सुख का वर्णन कर पाने मे स्वयं सरस्वती जी और शेष भगवान भी स्वयं को असमर्थ पाते हैं। अयोध्या में एक महीने तक रात्रि ही नहीं हुई, क्योंकि सारी तिथियां दुखी हो गईं कि नवमी में भगवान आये, हम लोग बस लौकिक कारणों से ही माने जाएंगे।
भगवान का जन्म तो नवमी को ही हुआ। जब एक महीने तक रात्रि ही नहीं हुई तो काल की गति अवरुद्ध हो गई। फिर एक माह में सारी तिथियां आ गईं। सब प्रसन्न। शुक्ल पक्ष ने कहा कि भगवान ने मेरा पक्ष लिया, मुझमें जन्म लिया। कृष्ण पक्ष को लगा कि मैं अभागा रह गया, तो भगवान ने कहा तुम चिंता मत करो, द्वापर युग में जब मैं कृष्णावतार लूंगा तब मैं कृष्ण पक्ष में अवतरित हो जाऊंगा। पर तुम्हारे सुख के लिए मैं अभी दिन में ही रात्रि कर देता हूं, तब अयोध्या के नगरवासियों ने इतनी मात्रा में रंग गुलाल उड़ाया कि पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश ही आना बंद हो गया...
अगर धूप बहु जनु अंधियारी।
उड़इ अबीर मनहुं अरुनारी।
अवधपुरी सोहइ एहि भांती।
प्रभुहि मिलन आई जनु राती।।
भगवान के जन्म में तो अंधेरा भी आनंद का ही कारक होता है। अयोध्या ऐसी शोभायमान हो रही है, जैसे रात्रि ही स्वयं भगवान से मिलने आ गई हो। तुलसीदास जी को लगा कि इस आनंद में मैं कैसे सम्मिलित हो जाऊं। उन्होंने देखा कि दशरथ जी के चारों पुत्रों को लोग आशीर्वाद दे रहे हैं तो मैं इसी समय भीड़ में सम्मिलित हो जाऊं। तब तुलसीदास जी कहने लगे कि अयोध्या में जिनका जन्म हुआ है, ये हमारे ईश्वर श्रीराम हैं। भगवान से निजत्व का नाता जोड़ लेना ही तुलसीदास जी का अभीष्ट है :
मन संतोषे सबन्हि के जहं तहं देहिं असीस।
सकल तनय चिर जीवहुं तुलसिदास के ईस।।
तुलसीदास जी ने सोचा कि अभी ये नन्हे से हैं। माता कौशल्या की गोद में समा गये हैं, तो इसी समय से इनसे नाता जोड़ लेना ठीक रहेगा। जब ये व्यापक हो जाएंगे, सर्वत्र हो जाएंगे तो इनके साथ हमारी व्यापकता का विस्तार भी सहज ही हो जाएगा। एक साथ सबको संतुष्ट कर देना ही राम की व्यापकता है। गंगा का मूल गोमुख, सूर्योदय की पूर्व दिशा, धान्य का बीज, ये हमारी संस्कृति में मूल और सूत्र हैं, जो अखंड हैं, व्यापक हैं और राम की तरह सर्वत्र हैं :
हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम ते प्रगट होइ मैं जाना।।
फिर गुरु वशिष्ठ जी ने कहा कि इन चारों पुत्रों को विश्व कल्याण से जोड़ देते हैं। तब उन्होंने श्रीराम को आनंद, सुख और विश्राम से जोड़ा, जो प्राणी मात्र का अभीष्ट है। सारे संसार का लालन-पालन भी करना है, तो श्रीभरत को भरण-पोषण से जोड़ दिया। संसार में सब प्रेम से रहें, किसी को किसी से राग, द्वेष, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा न हो, तो इन गुणों से युक्त शत्रुघ्न जी को जोड़ दिया, जिनके स्मरण मात्र से शत्रुओं का नाश हो जाता है। सारे संसार को आधार चाहिए। चरित्र चाहिए। जिसको राम की प्रियता सहज प्राप्त है, निश्चित रूप से ईश्वर का वास्तविक रूप तो प्रेम ही है। उसी को जिसने प्राप्त कर लिया हो, ऐसे हैं श्रीलक्ष्मण। प्रेम और उदारता तो सबको चाहिए, अत: वशिष्ठ जी ने कहा इनका नाम लक्ष्मण होगा। सारे संसार का भार वही उठा सकता है, जो श्रीराम को अपना आधार मानता हो :
जो आनंद सिंधु सुखरासी।
सीकर तें त्रैलोक सुपासी।
सो सुखधाम राम अस नामा।
अखिल लोक दायक विश्रामा।।
बिस्व भरन पोषन कर जोई।
ताकर नाम भरत अस होई।।
जाके सुमिरन ते रिपु नासा।
नाम सत्रुहन तेज प्रकासा।।
लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ट तेहि राखा लक्षिमन नाम उदार।।
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Apurva Srivastav
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