- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- धर्म-अध्यात्म
- /
- जानिए हिन्दू धर्म में...
धर्म-अध्यात्म
जानिए हिन्दू धर्म में धर्मसूत्रों का उद्भव एवं विकास कैसे हुआ
Usha dhiwar
26 Jun 2024 9:37 AM GMT
x
हिन्दू धर्म में धर्मसूत्रों का उद्भव एवं विकास:-Origin and development of Dharmasutras in Hinduism
धर्मसूत्रों में वर्णाश्रम-धर्म, व्यक्तिगत आचरण, राजा एवं प्रजा के कर्त्तव्य आदि का विधान है। ये गृह्यसूत्रों की शृंखला के रूप में ही उपलब्ध होते हैं। श्रौतसूत्रों के समान ही, माना जाता है कि प्रत्येक शाखा के धर्मसूत्र भी पृथक्-पृथक् थे। वर्तमान समय में सभी शाखाओं के धर्मसूत्र उपलब्ध नहीं होते। इस अनुपलब्धि का एक कारण यह है कि सम्पूर्ण प्राचीन वाङ्मय आज हमारे समक्ष विद्यमान नहीं है। उसका एक बड़ा भाग कालकवलित हो गया।
इसका दूसरा कारण यह माना जाता है कि सभी शाखाओं के पृथक्-पृथक् धर्मसूत्रों का संभवत: प्रणयन ही नहीं किया गया, क्योंकि इन शाखाओं के द्वारा किसी अन्य शाखा के धर्मसूत्रों को ही अपना लिया गया था। पूर्वमीमांसा में कुमारिल भट्ट ने भी ऐसा ही संकेत दिया है। धर्मसूत्र चार प्रमुख जातियों की स्थितियों,व्यवसायों, दायित्वों,कर्तव्यों तथा विशेषाधिकारों में स्पष्ट विभेद करता है॥
धर्मसूत्रों का उद्भव एवं विकास
आर्यों के रीति-रिवाज वेदादि प्राचीन शास्त्रों पर आधृत थे किन्तु सूत्रकाल तक आते-आते इन रीति-रिवाजों, सामाजिक संस्थानों customs, social institutions तथा राजनीतिक परिस्थितियों में पर्याप्त परिवर्तन एवं प्रगति हो गयी थी अत: इन सबको नियमबद्ध करने की आवश्यकता अनुभव की गयी।
सामाजिक विकास के साथ ही उठी समस्याएँ भी प्रतिदिन जटिल होती जा रही थीं। इनके समाधान का कार्यभार the task of resolving these अनेक वैदिक शाखाओं ने संभाल लिया, जिसके परिणामस्वरूप गहन विचार-विमर्श पूर्वक सूत्रग्रन्थों का सम्पादन किया गया। इन सूत्रग्रन्थों ने इस दीर्घकालीन बौद्धिक सम्पदा को सूत्रों के माध्यम से सुरक्षित रखा, इसका प्रमाण इन सूत्रग्रन्थों में उद्धृत अनेक प्राचीन आचार्यों के मत-मतान्तरों के रूप में मिलता है।
यह तो विकास का एक क्रम था जो तत्कालिक परिस्थिति के कारण निरन्तर हो रहा था। यह विकासक्रम यहीं पर नहीं रुका अपितु सूत्रग्रन्थों This development did not stop here but continued till the Sutra texts में भी समयानुकूल परिवर्तन एवं परिवर्धन किया गया जिसके फलस्वरूप ही परवर्ती स्मृतियों का जन्म हुआ। नयी-नयी समस्याएँ फिर भी उभरती रहीं। उनके समाधानार्थ स्मृतियों पर भी भाष्य एवं टीकाएँ लिखी गयीं जिनके माध्यम से प्राचीन वचनों की नवीन व्याख्याएँ की गयीं। इस प्रकार अपने से पूर्ववर्ती आधार को त्यागे बिना ही नूतन सिद्धान्तों तथा नियमों के समयानुकूल प्रतिपादन का मार्ग प्रशस्त कर लिया गया।
Next Story