धर्म-अध्यात्म

गीता में लिखा है 'सत्यं धर्म सनातनं का मूल सत्य

Tara Tandi
16 Feb 2021 9:19 AM GMT
गीता में लिखा है सत्यं धर्म सनातनं का मूल सत्य
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नसा कर्मणा वाचा के सिद्धांत के अनुसार मनुष्य के मन, वाणी तथा शरीर द्वारा एक जैसे कर्म होने चाहिए।

जनता से रिश्ता बेवङेस्क | 'सत्यं धर्म सनातनं' है सनातन धर्म का मूल सत्य

नसा कर्मणा वाचा के सिद्धांत के अनुसार मनुष्य के मन, वाणी तथा शरीर द्वारा एक जैसे कर्म होने चाहिए। ऐसा हमारे धर्म शास्त्र कहते हैं। मन में कुछ हो, वाणी कुछ कहे और कर्म सर्वथा इनसे भिन्न हों, इसे ही मिथ्या आचरण कहा गया है। ''कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढ़ात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।।''

श्री गीता जी में लिखा है कि मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोक कर उन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है।

कैकेयी ने दशरथ से भगवान श्री राम के वनवास जाने का वर मांगा। वचन से बंध जाने के कारण, भगवान श्री राम ने अपने पिता के वचन धर्म की रक्षा हेतु वन गमन स्वीकार किया।

''रघुकुल रीति सदा चली आई। प्राण जाए पर वचन न जाई।''

हमारे धर्म शास्त्रों में वचन धर्म को अत्याधिक महत्व दिया गया है। इसी में धर्म का मर्म एवं शास्त्र मर्यादा के पालन का रहस्य छुपा हुआ है जब स्वयंवर में अर्जुन ने द्रौपदी को प्राप्त किया और वे सब भाइयों सहित जब अपनी माता कुंती के समक्ष पहुंचे तब भूलवश कुंती के मुख से यह निकल गया कि तुम उपहार स्वरूप जो कुछ भी लाए हो उसे आपस में बांट लो।

अपनी माता के वचनों को असत्य न प्रमाणित करने के उद्देश्य से पांचों पांडवों ने द्रौपदी को अपनाया। वास्तव में यह पूर्व जन्म में भगवान शिव द्वारा द्रौपदी को दिए वर का परिणाम था कि उसने भगवान शिव से सर्वगुण सम्पन्न पति के लिए पांच बार प्रार्थना की। तब भगवान शिव के वरदान के प्रभाव से उसे पांच पति प्राप्त हुए।

पांडव सदैव कर्तव्य धर्म का पालन करते थे। उन्होंने अपनी माता के वचन धर्म की रक्षा की। मनुष्य का यह स्वभाव रहा है कि वह परिस्थितियों को अपने प्रतिकूल देख कर अपने ही वचनों से मुंह फेर लेता है लेकिन जो धर्म परायण मनुष्य होते हैं वे मन, वाणी और शरीर द्वारा एक जैसे होते हैं। सत्यवादी राजा हरीश चंद्र को केवल एक स्वप्न आया कि उन्होंने अपना राजपाठ महर्षि दुर्वासा को दान दे दिया है। प्रात: काल होते ही सत्य में ही उन्होंने अपना सम्पूर्ण राज्य महर्षि दुर्वासा को दे दिया।

अपने वचनों से मुंह मोड़ लेने पर न केवल मनुष्य की गरिमा एवं प्रतिष्ठा कम होती है बल्कि उसकी विश्वसनीयता पर भी प्रश्र चिन्ह लग जाता है। उपरोक्त प्रसंगों पर उतर पाना आधुनिक समय में किसी के लिए भी संभव नहीं है परंतु मनुष्य को इतना प्रयास अवश्य करना चाहिए कि वह अपने वचनों की मर्यादा का मान रखे।

भीष्म पितामह ने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत रखा और वह अपने इस व्रत पर अटल रहे। वचन धर्म पालन और उसकी रक्षा के अनेकानेक वृतांत हमारे धर्म ग्रंथों में हैं। शरणागत की रक्षा हेतु वचन इत्यादि दृष्टांत प्राप्त होते हैं। भगवान श्री कृष्ण द्वारा महाभारत के युद्ध में शस्त्र न उठाने का वचन, समाज हित के प्रति संवेदनशीलता तथा जगत हितार्थ कर्तव्यनिष्ठा को प्रतिपादित करते हैं।

ऐसा व्रत, जिसमें समस्त प्राणी मात्र का कल्याण निहित हो, ऐसा वचन जिसमें किसी का अहित न हो, निश्चित रूप से शाश्वत धर्म बन जाता है। 'सत्यं धर्म सनातनं' सनातन धर्म का मूल ही सत्य है। हम जो कुछ भी मन के द्वारा जन कल्याण के विषय में सोचते हैं वाणी के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति करते हैं और कर्म के द्वारा क्रियान्वित करते हैं।

इसके द्वारा शास्त्र का सिद्धांत 'मनसा कर्मणा वाचा' अवश्य ही चरितार्थ होता है। अगर हम सुशोभित वाणी के द्वारा दिखावे के तौर पर समाज में स्वार्थ भाव से कर्म करते हैं तो वे केवल नश्वर फल प्रदान करते हैं और जीव 'मनसा कर्मणा वाचा' के शाश्वत फल से वंचित रह जाता है।

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