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धर्म-अध्यात्म
गीता में कहा गया है- संसार रूपी वृक्ष में परमात्मा ही प्रधान हैं
Manish Sahu
15 Aug 2023 1:07 PM GMT
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धर्म अध्यात्म: जिंदगी का सबसे लंबा सफर एक मन से दूसरे मन तक पहुँचना है और इसी में सबसे ज्यादा वक्त लगता है। गीता उपदेश के बाद ही अर्जुन का भी मन पूरी तरह से भगवान के मन तक पहुँच पाया था।
पिछले अंक में भगवान ने अर्जुन को गुणातीत व्यक्ति के लक्षण बताए।
आइए ! अब गीता के आगे के प्रसंग में चलते हैं---
गीता के पन्द्रहवें अध्याय के आरंभ में भगवान कहते हैं, हे अर्जुन! जीव परमात्मा का अंश है, इसलिए इसका एक मात्र संबंध परमात्मा से है, लेकिन भूल से यह जीव अपना सारा संबंध संसार से जोड़ लेता है। भगवान, इस संसार की तुलना एक पेड़ से करते हुए कहते हैं---
(संसार रूपी वृक्ष का वर्णन)
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! यह संसार एक अविनाशी वृक्ष के समान है।
जिसकी जड़ें, ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्तोत्र हैं, जो व्यक्ति इस अविनाशी वृक्ष को अच्छी तरह जानता है, वही सम्पूर्ण वेदों का ज्ञाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि सामान्य रूप से वृक्षों का मूल नीचे और शाखाएँ ऊपर की तरफ होती हैं, परंतु यह संसार वृक्ष ऐसा विचित्र वृक्ष है जिसका मूल ऊपर तथा शाखाएँ नीचे की ओर हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि संसार रूपी वृक्ष में परमात्मा ही प्रधान है और परमात्मा का परम धाम भौतिक संसार से सर्वोपरि है, जहां जाने पर मनुष्य पुन: लौटकर संसार में नहीं आता।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढ़मूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥
इस संसार रूपी वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव नहीं किया जा सकता, क्योंकि न इसका आदि है न अंत है और न ही इसका कोई आधार ही है। अत्यन्त मजबूती से स्थित इस वृक्ष को केवल वैराग्य रूपी हथियार के द्वारा ही काटा जा सकता है।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥
संसार वृक्ष का छेदन करने के बाद साधक को क्या करना चाहिए, यह समझाते हुए भगवान कहते हैं, कि वैराग्य के हथियार से संसार वृक्ष को काटने के बाद एक सच्चे साधक को उस परमात्मा की तलाश करनी चाहिए जिसको प्राप्त करने के बाद वह साधक कभी वापस नहीं लौटता है। फिर मनुष्य को उस परमात्मा के शरणागत हो जाना चाहिये, जिस परमात्मा ने इस आदि-रहित संसार रूपी वृक्ष की उत्पत्ति और विस्तार किया है।
परमात्मा का परम पद कैसा है, इसका विवेचन करते हुए कहते हैं--
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
भगवान कहते हैं कि मेरे उस परम धाम को न सूर्य, न चन्द्रमा और न पावक (अग्नि) प्रकाशित करता है तथा जहाँ पहुँचकर कोई भी मनुष्य इस संसार में वापस नहीं आता है वही मेरा परम धाम है। कहने का अर्थ है, कि हम भगवान के अंश के हैं, इसलिए भगवान का जो धाम है वही हमारा धाम है। जब तक हम अपने उस धाम में नहीं जाएंगे, तब तक हम एक मुसाफिर की तरह अनेक योनियों में चक्कर लगाते रहेंगे। इसलिए हमारा उद्देश्य भगवान के उस परम पद की प्राप्ति होना चाहिए।
श्रीभगवानुवाच
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
हे अर्जुन संसार में, प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है, यह शरीर मन और छ: इन्द्रियों के साथ मिलकर प्रकृति के अधीन होकर कार्य करता है। कहने का अभिप्राय यह है कि, जीव जितना ही सांसारिक पदार्थों को महत्व देता है उतना ही वह पतन की ओर जाता है और जितना ही परमात्मा को महत्व देता है उतना ही वह ऊँचा उठता है, कारण कि जीव परमात्मा का अंश है।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! शरीर का स्वामी जीवात्मा मन और इंद्रियों के साथ दूसरे शरीर में उसी प्रकार चला जाता है जिस प्रकार हवा गन्ध को एक स्थान से ग्रहण करके दूसरे स्थान में चली जाती है।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढ़ा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥
जीवात्मा शरीर का किस प्रकार त्याग करती है, किस प्रकार शरीर में स्थित रहती है और किस प्रकार प्रकृति के गुणों के अधीन होकर विषयों का भोग करती है, मूर्ख मनुष्य कभी भी इस प्रक्रिया को नहीं समझ पाते हैं केवल वही मनुष्य देख पाते हैं जिनकी आँखें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो गयी हैं।
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गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥
भगवान कहते हैं— मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से सभी प्राणियों को धारण करता हूँ और मैं ही रसस्वरूप चंद्रमा होकर सभी वनस्पतियों को जीवन देता हूँ। कहने का तात्पर्य है, कि धरती में जो धारण शक्ति है वह धरती कि नहीं बल्कि भगवान की ही है। वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि पृथ्वी की अपेक्षा जल का स्तर ऊँचा है और पृथ्वी पर जल का हिस्सा पृथ्वी की अपेक्षा बहुत अधिक है, फिर भी पृथ्वी जलमग्न नहीं होती, यह भगवान की धारण शक्ति का ही प्रभाव है।
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, मैं ही सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ, मेरे द्वारा ही जीव को वास्तविक स्वरूप की स्मृति, विस्मृति और ज्ञान होता है, मैं ही समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ, मुझसे ही समस्त वेद उत्पन्न होते हैं और मैं ही समस्त वेदों को जानने वाला हूँ।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥
हे अर्जुन! इस जगत में दो प्रकार के पुरुष हैं। पहला क्षर (जो नाशवान हो)
और दूसरा अक्षर (जिसका नाश न हो) सम्पूर्ण प्राणियों का शरीर नाशवान है इसलिए वे क्षर हैं किन्तु जीवात्मा का नाश कभी नहीं होता क्योंकि वह परमात्मा का ही अंश है इसलिए वह अक्षर है।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥
परन्तु इन दोनों के अतिरिक्तएक श्रेष्ठ पुरुष भी है जिसे परमात्मा (पुरुषोत्तम) कहा जाता है, वह अविनाशी भगवान तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी प्राणियों का पालन-पोषण करता है।
यो मामेवमसम्मूढ़ो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥
हे भरतवंशी अर्जुन ! इस प्रकार मोह से रहित जो व्यक्ति मुझे पुरुषोत्तम जानता और समझता है वह सर्वज्ञ है और सब प्रकार से मेरा ही भजन करता है संसार की चमक-दमक में न रमकर मुझमें ही रमण करता है।
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥
भगवान कहते हैं- हे निष्पाप अर्जुन ! इस प्रकार यह अत्यंत गोपनीय रहस्य जो मेरे द्वारा कहा गया है, इस परम ज्ञान को जानकर मनुष्य ज्ञानवान और धन्य हो जाता है। भगवान ने इस पन्द्रहवें अध्याय में अपने आप को पृषोत्तम रूप में प्रकट किया है, इसलिए इसको गुह्यतमं शास्त्र (occult science) कहा गया है।
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