धर्म-अध्यात्म

कन्यादान न किया हो, तो तुलसी विवाह करके ये पुण्य अर्जित करें, जानें तुलसी विवाह का महत्व

Bhumika Sahu
12 Nov 2021 6:26 AM GMT
कन्यादान न किया हो, तो तुलसी विवाह करके ये पुण्य अर्जित करें, जानें तुलसी विवाह का महत्व
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देवउठनी एकादशी को सालभर की सबसे बड़ी एकादशी माना जाता है. इस दिन तुलसी विवाह कराने का भी चलन है. यहां जानिए कि तुलसी विवाह क्यों कराया जाता है और इसे कराने से क्या पुण्य प्राप्त होता है.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। देवउठनी एकादशी को शास्त्रों में बहुत बड़ी एकादशी माना गया है. कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी (Dev Uthani Ekadashi), देवोत्थान एकादशी (Devutthana Ekadashi) और प्रबोधनी एकादशी (Prabodhini Ekadashi) के नाम से जाना जाता है. इस दिन भगवान विष्णु चार माह की योग निद्रा से जागते हैं. इस दिन से ही मांगलिक कार्यों की भी शुरुआत हो जाती है.

इस ​बार देवउठनी एकादशी 14 नवंबर रविवार के दिन पड़ रही है. इस दिन भगवान विष्णु के शालिग्राम स्वरूप का विवाह भी तुलसी के साथ कराया जाता है. तुलसी भगवान विष्णु को अति प्रिय हैं. धार्मिक मान्यता है कि निद्रा से जागने के बाद भगवान विष्णु सबसे पहले तुलसी की पुकार सुनते हैं. इस कारण लोग इस दिन तुलसी का भी पूजन करते हैं और मनोकामना मांगते हैं. यहां जानिए तुलसी का शालिग्राम से विवाह कराने की वजह और तुलसी विवाह का महत्व.
ये है पौराणिक कथा
शिवपुराण की कथा के अनुसार भगवान शिव के क्रोध के तेज से एक तेजस्वी दैत्य बालक ने जन्म लिया, जिसे आगे चलकर दैत्यराज जलंधर कहा गया. जलंधर का विवाह वृंदा के साथ हुआ था. वृंदा पतिव्रता स्त्री थी. जलंधर को वरदान प्राप्त था कि जब तक उसकी पत्नी का सतीत्व नष्ट नहीं होता, तब तक उसकी मृत्यु नहीं हो सकती. जलंधर ने चारों तरफ हाहाकार मचा रखा था. उसने अपने पराक्रम से स्वर्ग को जीत लिया था और अपनी शक्ति की मद में वो बुरी तरह चूर हो चुका था.
एक दिन वो कैलाश पर्वत जा पहुंचा. वहां उसने भगवान शिव के वध का प्रयास किया. भगवान शिव का अंश होने के कारण वो शिव के समान ही बलशाली था, साथ ही उसके पास वृंदा के सतीत्व की शक्ति भी थी. इस कारण भगवान शिव भी उसका वध नहीं कर पा रहे थे. तब सभी देवताओं ने भगवान विष्णु से विनती की. इसके बाद भगवान विष्णु जलंधर का वेश धारण करके वृंदा के पास पहुंचे. वृंदा उन्हें अपना पति समझ बैठीं और पतिव्रता का व्यवहार करने लगीं. इससे उसका सतीत्व भंग हो गया और ऐसा होते ही वृंदा का पति जलंधर युद्ध में हार कर मारा गया.
भगवान विष्णु की लीला का पता चलने पर वृंदा क्रोधित हो गई और उन्होंने भगवान विष्णु को पाषाण होने का श्राप दे दिया. इसके बाद भगवान विष्णु पत्थर बन गए. भगवान के ​पत्थर बन जाने से सृष्टि में असंतुलन होने लगा. इसके बाद सभी देवता वृंदा के पास पहुंचे और उनसे विष्णु भगवान को श्राप मुक्त करने की विनती करने लगे. तब वृंदा ने उन्हें श्राप मुक्त कर दिया और स्वयं आत्मदाह कर लिया. जहां वृंदा भस्म हुईं, वहां तुलसी का पौधा उग आया. तब भगवान विष्णु ने कहा कि भगवान विष्णु ने कहा कि वृंदा, तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो. तुम्हारा श्राप साकार करने के लिए मेरा एक रूप पाषाण के रूप में धरती पर रहेगा, जिसे शालिग्राम के नाम से जाना जाएगा. मेरे इस रूप में तुम हमेशा मेरे साथ रहोगी. मैं बिना तुलसी जी के प्रसाद स्वीकार नहीं करूंगा. तब से तुलसी को दैवीय पौधा मानकर उनकी पूजा की जाने लगी और देवोत्थान एकादशी के दिन तुलसी का शालीग्राम के साथ विवाह की परंपरा शुरू हो गई.
तुलसी विवाह का महत्व
माना जाता है कि तुलसी विवाह करने से कन्या दान के समान पुण्य प्राप्त होता है. यदि आपने आज तक कन्यादान नहीं किया हो, तो तुलसी विवाह करके आप इस पुण्य को अर्जित कर सकते हैं. इसके अलावा तुलसी विवाह विधि-विधान से संपन्न कराने वाले भक्तों को अंत में मोक्ष की प्राप्ति होती है और भगवान विष्णु की कृपा से उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. इससे वैवाहिक जीवन में आ रही बाधाओं से भी मुक्ति मिलती है.


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