धर्म-अध्यात्म

रावण के पापों में कैसे भागीदार बन रहे थे लंका के वासी

Manish Sahu
17 Sep 2023 6:58 PM GMT
रावण के पापों में कैसे भागीदार बन रहे थे लंका के वासी
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धर्म अध्यात्म: विगत अंक में हमने देखा कि रावण ने यह आदेश पारित किया, कि श्रीहनुमान जी को अंग-भंग कर के वापस भेजा जाये। अंग-भंग भी ऐसे नहीं, अपितु तेल में कपड़ा भिगो कर, फिर उसे श्रीहनुमान जी की पूँछ में लगा दिया जाये, और फिर उसमें आग लगाने का भी आनंद लिया जाये। बस फिर क्या था, सभी राक्षसों के लिए तो मानो दीपावली का उत्सव हो उठा। सभी राक्षस गण अपने-अपने घरों से घी तेल ला-ला कर, व कपड़ों पर लपेट कर, रावण के आदेश का पालन करने में मस्त होने लगे। रावण ने भी बड़े चाव से कहा, कि हे वीर राक्षसों! कपड़ा बाँध कर उसकी पूँछ जला डालो। श्रीविभीषण जी को छोड़, किसी को भी इस आदेश से खिन्नता नहीं थी। कारण कि श्रीविभीषण जी तो संत का महत्व जानते थे। उन्हें ज्ञान था, कि अगर संत को जलाने का प्रयास करोगे, तो वह अग्नि संत को न जला कर, उल्टे ऐसी भावना रखने वाले को ही जला डालती है। रावण वास्तव में श्रीहनुमान जी की पूँछ को ही नहीं जला रहा था। अपितु यह बाहर की जलन, उसके प्रतिकार से भरे तप्त, विषाक्त व ईर्ष्या से सने हृदय की बाहरी झलक थी। रावण का श्रीहनुमान जी पूँछ को आग लगाना यही दर्शा रहा था, कि वह अपने प्रयासों से श्रीहनुमान जी के सम्मान को आग ही लगाने का प्रयास कर रहा था। तभी तो रावण कहता है, कि बिना पूँछ के यह वानर जब अपने स्वामी के पास जायेगा, तो स्वयं ही अपने स्वामी को साथ लेकर यहाँ आयेगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह वानर अवश्य ही अपने स्वामी के पास उलाहना देगा, कि देखो लंकापति रावण ने मेरे साथ क्या व्यवहार किया। मेरी प्रिय पूँछ ही जला डाली। कुछ भी हो, हे स्वामी आप मेरी जली पूँछ का प्रतिकार अवश्य लें। तब इसका स्वामी जब मेरे पास आयेगा, तो तब मैं भी तो देखूंगा, कि इसके स्वामी का क्या बल है-
‘पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि।।
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई।
देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई।।’
रावण की भावना स्पष्ट है, कि पहले तो मैंने श्रीहनुमान जी का अपमान किया, और जब इसका स्वामी यहाँ आयेगा, तो मैं उसका भी ऐसा ही अपमान करूंगा। रावण ने ऐसा इसलिए कहा, क्योंकि वह जानता है, कि श्रीहनुमान जी के स्वामी, श्रीराम जब यहाँ आयेंगे, तो निश्चित ही यह आपत्ति तो उठायेंगे ही, कि मैंने उसके दास को अंग-भंग क्यों किया। तो उस समय जैसे मैंने इस वानर का अपमान किया, ठीक वैसे ही मैं इसके स्वामी का भी अपमान करूंगा।
सज्जनों रावण की यह भावना यही दर्शाती है, कि वह ऐसी श्रेणी का स्वामी है, कि उसे स्वयं तो आज तक सम्मान नहीं मिला, और उसका प्रबल प्रयास भी यही है, कि किसी और को भी सम्मान न मिल पाये। चलो यह भी माना, कि उसे किसी के सम्मान को मिलने में दिक्कत है। लेकिन यह क्या पैमान हुआ, कि किसी का सम्मान नहीं करना तो उसका चाव है ही। लेकिन किसी का अपमान भी उसे हर मूल्य पर करना ही करना है। यह भला कहाँ की विचित्र वृति हुई। अरे रावण! आज तक अगर तेरे को सब ओर अपमान ही मिला है, तो इसमें दूसरे को मिला सम्मान थोड़ी न कारण है। तुम कर्म ही ऐसे क्यों नहीं करते, कि संसार तुम्हारा स्वयं ही सम्मान करे। श्रीहनुमान जी भले ही पाश में बँधे हों, लेकिन तब भी ब्रह्मा जी भी उनका सम्मान करते हैं। कारण कि ब्रह्मास्त्र के सम्मान में उन्होंने स्वयं को बँधना स्वीकार कर लिया, लेकिन ब्रह्मास्त्र के सम्मान की मर्यादा का उल्लंघन होना स्वीकार नहीं किया। जिस कारण समस्त देव लोक के देवी-देवता तो स्वयं ही, श्रीहनुमान जी के समक्ष नतमस्तक हो उठे। इसलिए सम्मान बलपूर्वक नहीं लिया जाता, अपितु इसके लिए परहित व लोक कल्याण हेतु, स्वयं को तपस्या के यज्ञकुण्ड में स्वाह किए जाने के प्रयास ही, हमें आदर के सिंहासन पर विराजमान कराते हैं। जबकि रावण सोचता है, कि किसी का अपमान करके ही मुझे प्रतिष्ठा मिल जायेगी। तो यह रावण का सरासर भ्रम है। केवल रावण ही क्यों, लंका के समस्त राक्षस भी इसी वृति के ही थे। उन्हें जब यह आदेश मिला, कि सभी तेल में भिगो कर कपड़ा लेकर आओ, तो उन्होंने इस कार्य में ऐसी तल्लीनता दिखाई, कि रावण ने तो मात्र यही कहा था, कि जाओ सभी तेल ले आओ, लेकिन राक्षस तो घी भर-भर कर, अपने मन से ही ले आये। मानो कहना चाह रहे हों, कि हो सकता कि तेल में पूँछ ढंग से न जले। लेकिन घी में तो निश्चित ही पूँछ को अच्छे से जलना चाहिए था। कुल मिला कर लंका में सभी के हृदय पापी हैं। कोई भी साधु को फलता-फूलता नहीं देखना चाहता। अब इसका परिणाम क्या निकलता है, यह तो हमें प्रसंग में आगे देखने को मिलेगा ही। संपूर्ण लंका वासी श्रीहनुमान जी की पूँछ जलाने के कार्यों इतने मस्त हो उठे, कि मानो कोई उत्सव की तैयारी चल रही हो।
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