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धर्म-अध्यात्म
रावण ने कैसे चारों गुणों का सदुपयोग नहीं करके उनका तिरस्कार किया था
Manish Sahu
29 Sep 2023 11:11 AM GMT

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धर्म अध्यात्म: वीर अंगद ने, अपने सेवा व समर्पण के बल से, श्रीराम जी का स्नेह व प्रेम तो लूट ही लिया था। जिस कारण प्रभु श्रीराम बार-बार यही कह रहे थे, कि हे वीर अंगद! तुम मेरे समीप बैठो। क्योंकि मुझे तुमसे वह सारा संस्मरण जानना है, जिससे तुमने उस दुष्ट रावण के चारों मुकुटों को पाया। मुझे बड़ा भारी कौतुहल है, कि तुमने यह महान कार्य कैसे कर दिया। मुझे सच-सच बताना-
बालितनय कौतुक अति मोही।
तात सत्य कहुँ पूछउँ तोही।।
प्रभु श्रीराम जी के यह वाक्य श्रवण कर, वीर अंगद अवश्य ही चिंतन में डूब गए होंगे, कि प्रभु ने यह क्यों कहा, कि मुझे ‘सच-सच’ बताना। क्या पहले कभी मैंने प्रभु से असत्य भाषण भी कहा है क्या? ‘सत्य’ से प्रभु का तात्पर्य निश्चित ही यह होगा, कि इस भौतिक घटना में मात्र इतना ही नहीं होगा, कि मैंने रावण के चार मुकुट लिए और प्रभु के श्रीचरणों की ओर उछाल दिए। इसमें वास्तविक सत्यता तो निश्चित ही कुछ और होगी। ऐसा चिंतन कर वीर अंगद प्रभु श्रीराम जी को कहते हैं, कि नहीं-नहीं प्रभु! ऐसा नहीं कि मैंने रावण के मात्र चार मुकुट ही आपकी ओर भेजे थे। वास्तव में वे तो राजा के चार गुण हैं-
‘सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी।
मुकुट न होहिं भूप न गुन चारी।।’
भगवान श्रीराम जी ने पूछा, कि भई स्वर्ण के बने मुकुट, भला राजा के चार गुण कैसे हो सकते हैं? तो वीर अंगद ने कहा, कि प्रभु सुनिए-
‘साम दान अरु दंड बिभेदा।
उर बसहिं नाथ कह बेदा।।
नीति धर्म के चरन सुहाए।
अस जियँ जानि पहिं आए।।’
हे नाथ! वेद कहते हैं, कि साम, दाम, दण्ड और भेद- ये चारों गुण राजा के हृदय में बसते हैं। जो कि नीति-धर्म के चार सुंदर चरण हैं। किंतु रावण में धर्म का अभाव है। ऐसा जी में जानकर, हे नाथ! ये आपके पास आ गए।
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दशसीश रावण धर्महीन, प्रभु के पद से विमुख और काल के वश में है। इसलिए हे कोसलराज! सुनिए, वे गुण रावण को छोड़कर आपके पास आ गए हैं।
अगर साम, दाम, दण्ड व भेद राजा के चार गुण हैं, और ये चारों रावण के पास भी थे, तो विचार करते हैं, कि रावण ने कैसे इन चारों गुणों का सदुपयोग न करके, तिरस्कार किया। साम का अर्थ हम लेते हैं सौम्य भाव से। जैसे श्रीराम जी बड़े सौम्य भाव वाले हैं। वे उन्हें वनवास दिलाने वाली, सौतेली माता कैकई का भी सम्मान करते हैं। शास्त्र कहते हैं, कि केवल राजा ही नहीं, अपितु प्रत्येक जन साधारण भी सौम्य भाव से ओत-प्रोत होना चाहिए। जैसे हम किसी संत, माता-पिता अथवा किसी अन्य विशिष्ट इकाई से मिलते हैं, तो निश्चित ही हमें उनसे सौम्य भाव से भेंट करनी चाहिए। ऐसे मे हम न केवल साम गुण के ही धारक हों, अपितु श्रद्धा से भी हम ओत-प्रोत हों। श्रीराम जी के संदर्भ में देखेंगे, तो वे इस गुण का पालन सर्वदा करते हैं। श्रीहनुमान जी प्रभु श्रीराम जी से, जब प्रथम बार भेंट करते हैं, तो अंर्तयामी प्रभु भले ही सब प्रकार से जानते हैं, कि मेरे समक्ष ब्राह्मण के वेश में कोई और नहीं, अपितु साक्षात श्रीहनुमान जी हैं। जो कि एक महान संत तो हैं ही। साथ में वे भगवान शंकर के अवतार भी हैं। ऐसे में प्रभु श्रीराम ऐसा भी सोच सकते थे, कि वेश बदलकर मुझ से ही पूछताछ करने का, श्रीहनुमान जी का दुस्साहस कैसे हुआ? भगवान श्रीराम जी ने ऐसा कुछ नहीं सोचा। अपितु वे पूर्णतः आश्वस्त हैं, कि संत अगर वेश बदलकर भी आपसे भेंट करे, तो निश्चित ही इसमें भी आपका कल्याण ही छुपा होता है।
वहीं दूसरी ओर रावण जब श्रीराम जी से प्रथम बार मिलता है, तो वह उन्हें बंदी बना लेता है, और उनकी पूछ को अग्नि की भेंट चढ़ा, उन्हें अपमानित करने की चेष्टा करता है। हालाँकि रावण को श्रीहनुमान जी के प्रति सौम्य भाव ही रखना चाहिए था। कारण वे केवल संत ही नहीं थे, अपितु भगवान शंकर के अवतार होने के नाते, रावण के गुरु भी थे।
ऐसा नहीं कि रावण अपनी साम नीति का प्रयोग करता ही नहीं है। करता है, लेकिन करता वहीं है, जहाँ उसे उसका प्रयोग करने से टलना चाहिए था। जैसे सूर्पनखा माता सीता जी पर जानलेवा प्रहार करने का दुस्साहस कर चुकी है। निश्चित ही रावण के समक्ष जब वह पहुँची, तो रावण को वहाँ दण्ड नीति का प्रयोग करना चाहिए था। कारण कि सूर्पनखा ने जगत जननी पर आक्रमण करने का अक्षम्य अपराध किया था। लेकिन रावण ने ऐसा कोई निर्णय नहीं लिया। उल्टा वह सूर्पनखा के साथ सौम्य भाव से व्यवहार करता है। रावण के इसी अनुचित व्यवहार के चलते, वीर अंगद ने कहा, कि रावण अपने साम नीति वाले मुकुट को संभाल नहीं पा रहा था, जिस कारण हे प्रभु! वह मुकुट आपके श्रीचरणों में आ पहुँचा। क्योंकि साम नीति का उचित प्रयोग कहाँ करना है, यह तो श्रीराम जी ही जानते हैं। बाकी तीन नीतियों (दान, दण्ड व भेद) की चर्चा हम अगले अंक में करेंगे।
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